________________
५६४ ]
अध्यात्मकल्पद्रुम
[ त्रयोदश
हमने पढ़ा है कि दोनों हिस्सों में अर्धराज प्रमाणका स्वयंभूरमण नामक समुद्र है, उसमें एक दिशामें जोत और दूसरी दिशा में उसकी समिला ( जोत में जोतनेके लिये डालने की खाली ) डाली गइ हो, तो वे तैरते तैरते इतने दूर जाकर इकट्ठे हो, ऐसा होना कठिन है, कभी एक स्थान में आ भी जावे तो भी पास पास आना कठिन है, और पास पास आनेपर भी जुों में समिला पिरोई जाना तो बहुत ही कठिन है, लगभग अशक्य ही है । कदाच ऐसा होना तो संभव है किन्तु मनुष्यभव प्राप्त होना तो इससे भी अधिक कठिन है और बोधिबीज प्राप्त होना तो इससे भी अधिक कठिन है |
समकित प्राप्तकर यदि फिरसे कामक्रोधादिक शत्रुके अधीन हो जायगा तो और अधिक भटकना पड़ेगा । है यति ! अतएव तुझे तो आत्महित करनेके लिये ही उद्यम करना चाहिये और जबतक तुझे तेरा इच्छित सुख न प्राप्त हो- मोक्ष न मिलेतब तक प्रबल पुरुषार्थ करतेही रहना ।
शत्रुओं के नाम. द्विषस्त्विमे ते विषयप्रमादा, असंवृता मानसदेहवाचः । असंयमाः सप्तदशापि हास्या
दयश्च विभ्यच्चर नित्यमेभ्यः ॥ ५३ ॥
"तेरे शत्रु - विषय, प्रमाद, विना अंकुश प्रवर्त्तनेवाला
मन, शरीर और वचन, सत्तर असंयम के स्थान और हास्यादि ६ हैं । इनसे तू निरन्तर सचेत होकर ( भय करके ) चलना । उपेन्द्रवा
"
विवेचन - इस श्लोक में तेरे शत्रुकी नामावली देकर तुझे