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अधिकार ] यतिशिक्षा [१७ शास्त्राणि शिष्योपधिपुस्तकाद्या,
भक्ताश्च लोकाः शरणाय नालम् ॥ ५५ ॥
" संयमके सर्व योगोंकी विराधना करने से तू भव भव दुःखके देरमें पड़ेगा तब शास्त्र, शिष्य, उपधि, पुस्तक और भक्तलोग आदि कोई भी तुझे शरण देनेमें समर्थ न होंगे।"
उपजाति. विवेचन-संयमके सत्तर भेदकी विराधनाका क्या फल होगा यह हम ऊपरके श्लोकों में कई बार पढ़ चुके हैं। दुर्गतिगमन और अनन्त भ्रमण ये संयम विराधनाके अनिवार्य फल हैं । यह निर्पिवाद बात है, तब फिर तेरा क्या आधार है ? क्या तूने इसका कभी विचार किया है ? मानो कि तूने बड़े २ आचारांगादि सूत्र पढ़े होंगे, अनेकों शिष्योंको इकट्ठा किया होगा, या उपधिका संग्रह किया होगा, या पुस्तक-पन्नोंका भंडार किया होगा, या तुझे नमन करनेवाले अनेकों श्रावक तेरे भाविक होंगे, परन्तु दुर्गतिमें जाते समय इनमेंसे कोई भी तुझे साथ न दे सकेंगे, तेरी सहायता न करेंगे, अपितु कितने ही तो तुझे गिरते हुएको और धक्का देगे । इसप्रकार तुझे कोई भी सहायता देने में समर्थ नहीं है । वास्तविक बात तो यह है कि तुझे संयमगुणकी विराधना न करनी चाहिये । पराई वस्तुकी भाशा रखना निरर्थक है । पुद्गल तथा परजीव इस जीवकी सहायता नहीं कर सकते हैं । यह जीव अकेला ही है, अतएव परभवके लिए ऐसे भवलम्बनकी खोज करने के स्थानमें ऐसा प्रसंग ही न आने पाये ऐसा कार्य कर । तात्पर्य यह है कि साधुपनमें संयम पालनेका तेरा जो कर्तव्य है उसको समझकर तदनुसार चलकर आत्माको अनन्तं दुखराशिमें पड़नसे बचा ।