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अध्यात्मकल्पद्रुम [ त्रयोदश सके ? जिसे संयमके महान् फल प्रत्यक्ष अनुभवमें पाये हैं उस संयमके लिये हे यति ! तू यत्न क्यों नहीं करता है?"
उपजाति.. - विवेचन-गम्भीर प्राशयवाला यह श्लोक उसके अधिकारियोंको बहुत मनन करने योग्य है । हे मुनि! तुझे वस्त्र, पात्र, आहार भेट करने के लिये मनुष्य बाध्य करते हैं, तेरी वन्दना करते हैं, पूजा करते हैं, नमस्कार करते हैं और सत्कार करते हैं, इस सबका क्या कारण है ? तू संयमवान् है, ऐसे नाममात्रसे ही तुझे इतना महान् मान मिलता है । जो राजा अथवा सैठो गवर्नरोंके सामने सिर झुकाते हुए भी विचार करते हैं वे तेरे पास पंचांग प्रणाम करते हैं, यह सब संयमके लिये है। कितने ही अप्रमाणिक व्यापारी पैसे पैदा करलेते हैं परन्तु वे प्रगट रूपसे प्रमाणिक बने रहें तब ही ऐसा कर पाते हैं। यदि स्पष्टरुपसे कह दे कि " में अप्रमाणिक हुँ" तो उसका व्यवहार नहीं चल सकता है । इसीप्रकार संयमके महान् गुण तेरे हैं ऐसा समझकर तुझे लोग नमस्कार-पूजन करते हैं। ऐसे गुण यदि वास्तवमें तेरेमें होंगे तो तुझे अत्यन्त लाभ होगा। संसारमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है कि जो संयमवालेको अलभ्य हो । यह सच है कि संयमवानको इच्छा नहीं होती, परन्तु मोक्षमुख तो उसको भी इष्ट है और वह सुख भी संयमसे प्राप्य है । ऐसे संयमके फलको विचार कर मुमुक्षु जीव शान्त चित्तसे आदरणीय होता है उसीको आदरते हैं । इस अगत्यकी हकिकत पर साधुजीवनका आधार है अतएव प्रत्येक अधिकारीको इस विषयपर शान्तिके समयमें एकाग्रचित्तसे लाखों वक्त विचार करना चाहिये। संसारकी दृढ़ भावना छुटनेका और स्वकर्तव्य पुरा करनेका द्वार यह विचार खोल देगा।