________________
५५८ ] . अध्यात्मकल्पद्रुम [त्रयोदश तिविहं तिविहेणं इत्यादि ' अर्थात् “ हे प्रभु ! सर्व प्रकारके सावध कार्योंका जीवनपर्यंत स्मरण न करुंगा, करनेका आदेश न देऊंगा, और उन सबको , मन-वचन-कायासे न करूंगा, न कराऊँगा इतना ही नहीं परन्तु करनेवालेको भी अच्छा न सममूंगा । " ऐसी सख्त प्रतिज्ञा तूने चारित्र ग्रहण करते समय की है, इतना ही नहीं अपितु प्रतिदिन इस प्रतिज्ञाको तू नो बार बोलता है, पुनरावर्तन करता है, दृढ़ करता है; परन्तु वास्तविकतया देखा जाय तो तू एक मात्र कायासे सावद्य नहीं करता है, (.क्यों कि वह साधुके वेशको शोभा नहीं देता है ) लोकभय, दिखाव और ऐसे अनेकों बाह्य कारणोंसे तू कायासे विरत रहता है, अन्यथा वचन तथा मनसे तो अनेक प्रकारके आदेश और • उपदेश प्रकट या गुप्तरूपसे करता रहता है, कराता है और अनुमोदन करता है। .... इसप्रकार प्रतिज्ञा न पालनेसे जीव मृषावाद बोलनेका भी दोषी होता है। निवृत्तिका सच्चा स्वपरू ध्यानमें होनेपर ही चिंतवनमें भी सावद्यका त्याग हो सकता है । संसारसे विरक्तिभाव जिसको हो गया हो वह प्राणी तो अधिक गुणप्राप्तिकी अभिलाषा रखता है । त्याग किये-छोड़े सावध योगोंकी ओर तो यह दृष्टिपात भी नहीं करता है । हे यति ! कई बार प्रकट अन्य शब्दोंमें भी समझा सके ऐसा सावध आदेश तेरेसे हो जाता है इसलिये सावधान रहना । तुझे यदि मुमुक्षु बनना हो तो इस झनिकारक प्रणालिकाको बन्द कर देना उचित है।'
प्रकट प्रशस्त सावद्य कर्मोका फल. कथं महत्त्वाय ममत्वतो वा,
सावद्यामच्छस्यपि सङ्घलोके ।