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अध्यात्मकल्पद्रुम [प्रयोदश यतिः स तत्त्वादपरो विडम्बकः ॥४५॥ __ " जो प्राणी दान, मान ( सत्कार, स्तुति और नमस्कारसे प्रसन्न न होता हो और इनके विपरितसे ( असत्कार, निंदा आदिसे ) अप्रसन्न न होता हो, और भलाम आदि परीषहोंको सहन करता है वह परमार्थसे यति है, शेष अन्य तो वेशविडंबक हैं।"
इंद्रवंशा. विवेचन-कोई पुरुष आदरसत्कार करे, स्तुति करे और कोई तिरस्कार करे, निन्दा करे उन दोनों पर एकसा ही भाव रहे यह यतिस्वरूप है। इसमें भावधर्मका सूक्ष्म आचरण होता है । मानसिक क्षेत्रमें इसप्रकारका उच्च भाव रहता हो और शारीरिक क्षेत्रमें अनुकूल प्रतिकूल सर्व परीषह सहन करनेमें दृढ़ता हो वह ही तत्त्वसे यतिपन है, और यह जिसमें हो वह ही परमार्थसे यति-साधु कहलाता है। शेष अन्य तो वेश-विडंबना करनेवाले हैं । भर्तृहरिके नाटकमें उनका पार्ट करनेवाले खिलाडी अपनेआपमें कितने गुण निष्पन्न कर सकते हैं इस दृश्यके दृष्टांतसे वेशधारीका स्वरूप समझ लेना चाहिये । वेशधारीके लिये तो यह भी एक प्रकारका व्यवहार ही हो जाता है, जिससे फिर धार्मिक जीवनका अन्त भा जाता है। नाटकके खेलका खेलना छोड़कर अपनी शुद्ध दशाको जाग्रत कर । पूर्ण अनुकूल संयोग होने पर भी यदि इस प्रसंगको खो देगा तो फिर पश्चात्ताप करना पड़ेगा।
यतिको गृहस्थकी चिन्ता न करनी चाहिये । दधद् गृहस्थेषु ममत्वबुद्धिं,
. कहा है कि 'समो य माणावमाणेसु ' " मान और अपमानमें बो समान रहे " इसीप्रकार " नवि तस्स कोई वेसो " जिसके द्वेष करने योग्य कोई भी न हों।
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