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५३२] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ त्रयोदश उत्तम है; परवश होनेपर तो अनेकों कठिन दुःख उठाने पड़ेंगे और वे सब निष्फल होंगे।"
द्रुतविलंबित. विवेचन-तप बारह प्रकारके हैं। छ बाह्य और छ अभ्यंतर । बाह्यतपमें उपवास आदिका समावेश होता है और अंतरंग तपमें प्रायश्चित आदिका, जिनपर पहले ही विवेचन कर दिया गया है । यम पांच हैं । जीववधत्याग, सत्यवचनसच्चारण, अस्तेय ( नष्ट हुआ, पड़ा हुआ, विस्मरण हुआ अथवा फेंका हुआ परद्रव्य नहीं लेना अथवा सर्वथा चार प्रकारके अदत्तका त्याग करना ), अखण्ड ब्रह्मचर्य और धनकी मूीका त्याग । अर्थात् सारांशमें कहा जाय तो पांच अणुव्रतों और महाव्रतोंका आदर करना यह यम कहलाता है । संयम सत्तरह प्रकारके हैं । उपरोक्त पांच महाव्रतोंका आचरण, चार कषायोंका त्याग, मन, वचन
और कायाके योगोंपर अंकुश अगर निरोध और पांच इन्द्रियोंका दमन-ये सत्तरह प्रकारके संयम हैं । इन तप, यम और संयमके पालन करते समय होनेवाले बाह्य कष्टको यन्त्रणा कहते हैं। ये कष्ट तो हैं परन्तु स्वबश और परिणाममें शुभ फलको देनेवाले हैं । इन दुःखोंको भविष्यमें महान लाभ देनेवाले समझकर सहन किये जाय तो ये भी आनंददायक हैं और मनमें शान्तिका संचार करते हैं । अपितु दूसरी पंक्तिमें जो बात कही गई है वह बहुत आवश्यक है । स्ववशरूपसे सहन करनेमें बहुत लाभ है । भर्तृहरिका कहना है कि--
अवश्थं यातारश्चिस्तरमुषित्वापि विषया, वियोगे को भेदस्त्यजतिन जनो यत्स्वयममून् । वजन्तः स्वातन्त्र्यादतुल परितापाय मनसा. स्वयं त्यक्ता ह्येते शमसुखमनन्तं विदधत्ते ॥१॥