________________
५५४ ]
अध्यात्मकल्पद्रुम [ त्रयोदश १७ प्रकार के संयम । . पांच श्रावका विरमण । नये कर्मबन्ध करानेवाले प्राणातिपातादि पांच महादोषोंसे विराम पाना ।
__ पांच इन्द्रियोंका दमन, चार कषायों का त्याग, मन-वचनकायाके ( तीन ) दण्डोंसे विरति, ये सतरह प्रकारके संयम हैं। इसके सिवाय अन्य रूपसे भी सतरह भेद गिने जा सकते हैं। १० प्रकारसे बड़ोकी सेवा-सुश्रूषा भक्ति ।
१ आचार्य, २ उपाध्याय, ३ तपस्वी, ४ नवदीक्षित शिष्य, ५ रोगी साधु, ६ सामान्य साधु, ७ स्थविर, ८ संघ, ९ कूल
और १० गण (एक वाचनावाले साधुओंका समुदाय गण कह. लाता है । गणके समूहको कूल कहते हैं और कूलके समूहको संघ कहते हैं ) इन सबोंको अधिकार और योग्यतानुसार आहार देकर, उनके लिये प्रबन्ध करके या सेवा करके उनके योग्य समाधिसाधन तैयार कर देना वैयावच्च कहलाती है। ९ ब्रह्मचर्यगुप्ति--शीलकी नव वाड़ कही जाती है।
१ जिस स्थानपर स्त्री, पशु और नपुंसक हो वहाँ नहीं रहना चाहिये ।
२ स्त्रीसे कथा न करना, स्त्रीके सम्बन्ध में बातचीत न करना । स्त्रीके साथ एकले बातचीत न करना चाहिये ।
३ स्त्री जिस आसनपर बैठी हो उस आसनपर उसके साथ न बैठना, उसके उठ जानेपर दो घड़ी तक न बैठना चाहिये।
४ स्त्रीके किसी भी अवयवपर घूरकर न देखना । सामान्य रीतिसे देखलिया जाय तो दृष्टि खिंच लेना और उस अवयवकी सुन्दरताके विषयमें चिन्तवन न करना चाहिये ।
५ दम्पतीकी कामविकारजन्य वार्ता जिस कमरमें होती . हो उसके निकटवाले कमरेमें सोना तथा बैठना न चाहिये ।