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५४६ ) ___ अध्यात्मकल्पद्रुम [ त्रयोदश ____दश दोष एषणाके होते हैं । शुद्ध आहारको लेते समय प्रगट शंका आदि दोष ।
( इन बियालिस दोषोंका स्वरूप बहुत विस्तारसे समझना जरूरी है, यहां लिखनेसे ग्रन्थगौरव होता है इससे नहीं लिखा गया है । प्रवचनसारोद्धार-प्रकरणरत्नाकर भा. ३ पृष्ठ १६८ को देखिये । और उपमितिभवप्रपंचा कथा-भाषान्तर प्रस्ताव चोथेका परिशिष्ठ ) ५ समिति
१ साढ़े तीन हाथ आगे दृष्टि रखकर, देखकर चलना ।
२ निर्दभपनसे सत्य और सबको अभिमत हो ऐसा अल्प किन्तु उक्त और हितकारी बोलना ।
३ दोषरहित भाहार-पानी ग्रहण करना। ४ वस्तुओंको लेते-देते प्रमार्जनादिका उपयोग रखना ।
५ लघुशंका (पेशाब ), बडीशंका (टट्टी ) आदि करते हुए भूमिशोधन करना। १२ भावनायें
इसका स्वरूप विस्तारपूर्वक ऊपर आ चूका है । १२ साधुकी प्रतिमा
वऋषभनाराच संघयनवाला, धीरजवाला, सत्त्ववंत प्राणी. को शास्त्र में बताये विधि अनुसार मुनिकी बारह प्रतिमाको धारण करनी चाहिये । ५ इन्द्रियनिरोध २५ प्रतिलेखना
प्रातः, मध्याह्न और सायं सर्व उपकरणोंकी प्रतिलेखना करना।
३ गुप्ति-मन, वचन, कायाके योगोंपर अंकुश लगाना अथवा उनको रोकना।