________________
अधिकार ]
यतिशिक्षा
[५४७ ४ अभिग्रह-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे अभिग्रहनियम करना।
चरणसित्तरी नित्य अनुष्ठान है और करणसित्तरी प्रयोजन वशात् प्राप्य अनुष्ठान है । इन सब साधुके योग्य कर्तव्यों में तू प्रवृत्ति करना । प्रमादसे संसार बढ़ता जाता है, मृत्यु समीप आती जाती है और गया वक्त फिर हाथ नहीं पाता है; इसीप्रकार यह मनुष्य देह भी फिरसे प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है ।
__ योगरुंधनकी आवश्यकता. हतं मनस्ते कुविकल्पजालै
वैचोप्यवद्यैश्च वपुः प्रमादैः। लब्धीश्च सिद्धिश्च तथापि वाञ्छन् । __ मनोरथैरेव हा हा हतोऽसि ॥ ४१ ॥
" तेरा मन खराब संकल्पविकल्पसे खेदा हुआ है, तेरे वचन असत्य और कठोर भाषासे सने हुए हैं, और तेरा शरीर प्रमादसे भ्रष्ट हुआ है, तिस पर भी तू लब्धि और सिद्धिकी वाञ्छा करता है। सचमुच ! तू (मिथ्या) मनोरथसे खेदा हुआ है।"
उपजाति. १ प्रथम पंक्तिस्थाने "दग्धं मनो मे कुविकल्पजालैः " चतुर्थ पंक्तिस्थाने " मनोरथैरेव हहा विहन्य" इति वा पाठः । इस पाठान्तरमें दूसरे पुरुषको उद्देश कर कहने के स्थानमें आत्माको उद्देश कर प्रथम पुरुषमें वह ही भाव कहते हैं । यह पाठ भी समीचीन है । इसका अर्थ " मेरा मन कुविकल्पोंसे भस्मीभूत हो गया है, वचन असत्य और कठोर भाषणसे कर्कश हो गये हैं और शरीर प्रमादसे बिगड़ गया है; फिर भी लब्धि सिद्धिकी वांछा करके " अरेरे ! मैं मनोरथसे हनन किया गया हूँ ।" इस अर्थका भाव आसानीसे समझमें आ सकता है। इसके लिये इस अधिकारके १८ वें श्लोकको पढ़िये। ऊपर मूलमें जो बात बतलाई गई है वे उसके बादके तीन श्लोकों के अनुरूप है इससे वह अधिक उपयुक्त है।