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५३६ ) अध्यात्मकल्पग्रुम
[ त्रयोदश परत्र चन्द्रादिमहोदयश्रीः,
प्रमाद्यसीहापि कथं चरित्रे ? ॥ ३८ ॥
" चारित्रसे इस भवमें सब प्रकारकी चिन्ता और मन की प्राधिका नाश होता है इसलिये जिसकी उसमें लय लगी हुई हो उसको अत्यन्त आनंदकी प्राप्ति होती है और परभवमें इन्द्रासन तथा मोक्षकी महालक्ष्मी प्राप्त होती है। ऐसा होनेपर भी समझमें नहीं आता कि यह जीव क्यों प्रमाद करता है ?"
. उपजाति. विवेचन:--चिन्ता--राज्यभय और चोरभय ।
आर्ति-अपने तथा दूसरोंके भरणपोषण आदिसे होनेपाला मानसिक कष्ट ।
साधुजीवनमें विशेषतया स्वात्मसंतोष (Self-denial ) और लभ्य वस्तुका भी इच्छापूर्वक त्याग देखने में आता है । इस स्वात्मसंतोष और स्वयं त्यागमें कितना आनन्द है यह हम कई प्रसंगोंपर पहिले देखचुके हैं। इसमें चिंता अथवा अन्य किसी भी प्रकारकी मानसिक उपाधिका अभाव देखा जाता है । इस बड़े लाभके सामने अन्य सब वस्तुयें अल्प है, छोटी हैं, व्यर्थ हैं, अगण्य है । इस मानसिक सुखके प्राप्त करनेमें चाहे जितना कष्ट क्यों न झेलना पड़े फिर भी इससे पिछे न हठना चाहिये । इस स्थूल सुखके उपरान्त आत्मिक वृत्ति शुद्ध होनेसे नवीन कर्मबन्ध नहीं होता और यदि होता है तो-शुभ होता है । प्रथमसे ( कर्मबन्धके अभावसे ) मोक्षलक्ष्मी प्राप्त होती है, जबकि दूसरेसे ( शुभ कर्मबन्धसे ) इन्द्र, महर्द्धिक देव आदिकी महालक्ष्मी प्राप्त होती है । इसप्रकार चारित्रसे सर्वत्र आनन्द है। टीकाकारका कहना है कि