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अध्यात्म कल्पद्रुम
[ त्रयोदश
किसी भी प्रकार की शय्या के लिये रागद्वेष न करना । समता से अन्यकृत तिरस्कार सहन करना । स्वध होनेपर भी धर्मत्याग न करना ।
योग्य याचना करते लज्जित न होना ।
याचना करनेपर भी यदि न मिल सके तो भी मनकी
समस्थिति बनाये रखना |
रोगकी पीड़ा समता से सहन करना ।
डाभ तृणादिकके स्पर्शको बर्दास्त करना |
शरीर के मलपर जुगुप्सा न करना ।
सत्कार - श्रादर हो या नही उसकी इच्छा न रखना तथा होनेपर फूल न जाना ।
ज्ञानीपनका अहंकार न करना ।
ज्ञानपनसे विद्या न चढ़े तो भी पढ़ने से जी न चुराना |
श्रद्धा दृढ़ रखना |
इन बाईस परिषहोंमें से अनुकूल और प्रतिकूल सर्व प्रकारके परिषहों को सहन करनेसे महासंवर होता है और उस समय के बीचमें जीव नये कर्म ग्रहण नहीं करता है । ये स्थूल परीषह हैं, इतना ही नहीं परन्तु मानसिक भी हैं । उनका आभास मनोराज्य में भी उसी प्रबलता से होता है और इनकी उपस्थिति से जीवको बहुत वीर्योल्लास होता है । एक एक परिषहका स्वरूप ध्यान में रखकर विचारनेसे जान पड़ता है कि स्थूल बाधायें सहने को तैयार होनेसे यह जीव बहुत सुख प्राप्त करें सकता है । साधु जीवनपर लिखे हुए ये विचार अधिकांशमें गृहस्थों को भी अनुकरणीय है । जो परभव, आत्मा और पुद्गलका भिन्नभाव 1 और प्रत्येककी भिन्न भिन्न सत्ता समझते हो वे ही इस अध्या त्मिक विषय में आनन्द उठा सकते हैं । इस विषयपर गहरा