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५४० ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ त्रयोदश दमन, आत्मसंयम, योगरूंधन आदि शारीरिक कष्ट रहित महाविकट कार्य भी हो सकते हैं। इसलिये ऊपर कहा गया है कि तेरेसे मासखमण प्रादि तपस्या, महाप्राणवायुदमन (महापाणायाम) आदि ध्यान अथवा स्थूल बाईस परीषह सहन आदि न हो सके तो भी तेरी धर्मबुद्धिसे उत्पन्न हुई संसारकी अनित्यताका ध्यान रखना, तेरे एकत्वपनका विचार करना, शरीरको अशुचिका पिण्ड समझकर उसपरकी ममता कम करना आदि सुप्रसिद्ध बारह भावना निरन्तर भाना तेरा मुख्य कर्तव्य है । इसीप्रकार प्रथम अधिकारमें बतलाई हुई मैत्री, प्रमोद, कारुण्य
और माध्यस्थ्य ये चारों भावनाओं को निरन्तर रखनेका भी तेरा कर्तव्य है । इनके उपरान्त किसी भी वस्तुको ग्रहण करते, छो. इते, चलते, बैठने, बोलते उपयोग रखने में समितिका समावेश होता है, तथा मन, वचन, कायाकी प्रवृत्तिपर अंकुश रखना गुप्ति कहलाता है । इस समिति-गुप्तिके धारण करनेका तेरा मनोबलपर आधार है और यदि तू चाहेगा तो इस विषयमें बहुत कुछ कर सकेगा । इस विषयपर और अधिक विस्तारपूर्वक विवेचन आगे किया जायगा।
भावना-संयमस्थान-उसका आश्रय. अनित्यताद्या मज भावनाः सदा,
यतस्व दुःसाध्यगुणेऽपि संयमे । जिघत्सया ते स्वरते ह्ययं यमः,
श्रयन् प्रमादान्न भवाबिभेषिकिम् ?॥४०॥
" अनित्यपन आदि सब भावनामोंको निरन्तर रख, जो संयभके (मूल तथा उत्तर ) गुण कठिनतासे साधे जा
१-४० वे श्लोकके विवेचनको पढ़िये । . १ ह्ययं यमः इति स्थानेऽसंयभः इति पाठः प्रसिद्धार्थः ।