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अधिकार
यतिशिक्षा
[५३९ विचार करनेकी आवश्यकता है, परन्तु यहां उस व्यवहारकी उपस्थिति समझकर ही ग्रन्थ योजना की गई है । इस प्रकारके भास्तिक जीवोंको थोड़ेसे कष्ट सहन करके भी सदैवके लिये महान सुख प्राप्त करनेके लिये प्रबल पुरुषार्थ करने की अत्यन्त
आवश्यकता है । इतना ही नहीं अपितु महालाभदायक भी है । इस ' यतिशिक्षा' के विषय में वारंबार पुनरावर्तन होता है, परन्तु इसमें कुछ दोष नहीं है; क्यों कि इस अनादि मिथ्या. भ्यासी जीवको शुद्ध उपदेश बारम्बार देने निमित्त महान उद्देश्यसे यह पुनरावर्तन किया गया है, और इसका आशय बहुत गम्भीर होने पर भी शुभ है।
सुखसाध्य धर्मकर्तव्य--प्रकारान्तर. महातपोध्यानपरिषहादि,
न सत्त्वसाध्यं यदि धर्तुमीशः । तद्भावनाः किं समितीश्च गुप्ती
धत्से शिवार्थिन्न मनःप्रसाध्याः ॥ ३९ ॥
" उग्र तपस्या, ध्यान, परीषह आदि सच्चसे साधे जा सकते हैं, इनको साधने में यदि तू असमर्थ हो तो भी भावना, समिति और गुप्ति जो मनसे ही साधे जा सकते हैं उनको हे मोक्षार्थी ! तू क्यों नहीं धारण करता ?" उपजाति.
विवेचन-नो श्लोकोमें परीषह सहन करने का उपदेश किया गया है। छमासादिक तपस्या और महाप्राणायामादिक ध्यान इसीप्रकार बड़े उपसर्ग परीषहों सहन करनेका कदाच पंचम कालके प्रभावसे अभी जिनमें शारीरिक बल न हो उनके लिये भी रास्ता खुला हुआ है । वे भी यदि चाहे तो लाभ उठा सकते हैं। मनपर यदि अंकुश हो तो उसके अनुसार इन्द्रिय.