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____ अध्यात्मकल्पद्रुम [त्रयोदश इस श्लोकके मननपर संसारके एक महान प्रश्नका आधार है और उसपर विवेचन किया करते समय विचारकी विशेष
आवश्यकता है । इसके रहस्यको समझकर तदनुसार संतोष रखने के लिये यत्न करनेको बहुत आवश्यकता है, इतना ही नहीं अपितु संसारसमुद्र पार उतरने का सीधा और सिद्ध उपाय है।
परीषहसहन-संवर. शीतातपाद्यान्न मनागपीह, __ परीषहांश्चेत्क्षमसे विसोढुम् । कथं ततो नारकगर्भवास
दुःखानि सोढ़ासि भवान्तरे त्वम् ? ॥३०॥
" जब कि तू इस भवके थोड़ासा शीत, ताप आदि परीषहोंको भी सहन करनेमें अशक्त है तो फिर भवान्तरमें नारकी तथा गर्भवासके दुखोंको क्योंकर सहन कर सकेगा ?"
उपजाति. विवेचन -अब भिन्न भिन्न विषयोंपर प्रकीर्ण श्लोकोमें उपदेश किया जाता है । इसका लक्ष्य मुनीजीवन है और बहुधा एक विषय दूसरे विषयके साथ शृंखलाबद्ध हो ऐसा नहीं होने पर भी इस और आगेके आठ श्लोकोंमें परिसह सहन करनेका मुख्य उपदेश है । हे मुनि ! जिसके द्वारा नये कौके प्रवेश होनेमें बाधा उपस्थित हो उसे शास्त्रकार संवर कहते हैं । विभावदशामें मनोवृति बहुधा विनाशके ( अधो) मार्गमें ही गमन करती है, क्योंकि उसपर रागद्वेष आदिका आधिपत्य होता है । इस जीवको प्रतिकूल विषयों का सामना करना पड़े फिर भी अपने कर्तव्यपर अटल रहना और रागादि शत्रुओंको रोकना संवरका कार्य है और यह विशेषतया परिग्रहोंपर विजय प्राप्त करनेसे ही हो