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________________ ५२६ ] ____ अध्यात्मकल्पद्रुम [त्रयोदश इस श्लोकके मननपर संसारके एक महान प्रश्नका आधार है और उसपर विवेचन किया करते समय विचारकी विशेष आवश्यकता है । इसके रहस्यको समझकर तदनुसार संतोष रखने के लिये यत्न करनेको बहुत आवश्यकता है, इतना ही नहीं अपितु संसारसमुद्र पार उतरने का सीधा और सिद्ध उपाय है। परीषहसहन-संवर. शीतातपाद्यान्न मनागपीह, __ परीषहांश्चेत्क्षमसे विसोढुम् । कथं ततो नारकगर्भवास दुःखानि सोढ़ासि भवान्तरे त्वम् ? ॥३०॥ " जब कि तू इस भवके थोड़ासा शीत, ताप आदि परीषहोंको भी सहन करनेमें अशक्त है तो फिर भवान्तरमें नारकी तथा गर्भवासके दुखोंको क्योंकर सहन कर सकेगा ?" उपजाति. विवेचन -अब भिन्न भिन्न विषयोंपर प्रकीर्ण श्लोकोमें उपदेश किया जाता है । इसका लक्ष्य मुनीजीवन है और बहुधा एक विषय दूसरे विषयके साथ शृंखलाबद्ध हो ऐसा नहीं होने पर भी इस और आगेके आठ श्लोकोंमें परिसह सहन करनेका मुख्य उपदेश है । हे मुनि ! जिसके द्वारा नये कौके प्रवेश होनेमें बाधा उपस्थित हो उसे शास्त्रकार संवर कहते हैं । विभावदशामें मनोवृति बहुधा विनाशके ( अधो) मार्गमें ही गमन करती है, क्योंकि उसपर रागद्वेष आदिका आधिपत्य होता है । इस जीवको प्रतिकूल विषयों का सामना करना पड़े फिर भी अपने कर्तव्यपर अटल रहना और रागादि शत्रुओंको रोकना संवरका कार्य है और यह विशेषतया परिग्रहोंपर विजय प्राप्त करनेसे ही हो
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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