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अधिकार ] ... यतिशिक्षा
[५२७ सकता है । जैन शास्त्रकार ऐसे बाईस परिषह बतलाते हैं, जिन: मेंसे कितने ही अनुकूल भी होते हैं । इनका सामान्य स्वरूप. इसी अधिकारमें आगे बतलाया गया है । इन परिषहोंके सहन कर लेने पर नवीन कर्माकी राशी बन्द हो ( रुक ) जाती है
और पूर्वोपार्जित प्रबल कोका क्षय हो जाता है, यह बहुत बड़ा लाभ होता है। हे मुनि ! तेरे जीवन में यह परीषह-सहन तो बहुत आवश्यक कार्य करनेवाला होना चाहिये और स्मरण रखना कि यदि तू उनको यहां प्रसन्नतापूर्वक सहन न करेगा तो कुंभीपाक अथवा गर्भवासके दुःख तो तुझे भोगने ही पड़ेगें, अपितु यहां तो स्ववश होनेसे केवल मात्र अल्पकाल तक परीषह सहन करने पड़ेंगे जब कि भवान्तरमें इससे नितान्त विपरीत ही दशा होगी।
विनाशी देह-तप जप करना. मुने ! न किं नश्वरमस्वदेह
मृत्पिण्डमेनं सुतपोव्रताद्यैः। निपीड्य भीतिर्भवदुःखराशे
हित्वात्मसाच्चैवसुखं करोषि ॥ ३१ ॥
" हे मुनि ! यह शरीररूप मृतपिण्ड नाशवन्त है और अपना नहीं है, तो फिर उसको उत्तम प्रकारके तप और व्रत आदिसे कष्ट पहुंचाकर अनन्त भवोमें प्राप्त होनेवाले दुःखोंको दूरकर, मोचसुखको आत्मसन्मुख क्यों नहीं करता है ?"
उपजाति. विवेचन-शरीर उपयोगी है, परन्तु कब ? जब कि १-३८ वे शोकके नीचेकी नोटको पढ़िये । २-मागे ३५ वें श्लोकको देखिये ।।