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अधिकार ] यतिशिक्षा
[४८५ एक नई प्रकारकी सृष्टिको ही निर्मित करता है। कितने ही नामधारी श्रीपूज्य और गोरजी तो चारित्रके प्राणभूत चतुर्थव्रत भंग करनेकी हद तक पहुंच जाते हैं; उनकों तो इस अधिकारमें खड़े रहने तक को स्थान नहीं है। शिथिलाचारी, एकलविहारी, श्राधाकर्मी आहार लेनेवालों को कष्टभीरु कहा गया है । परीषह उपसर्गसे डरजानेवाले यतिको उद्देश कर कहते हैं कि मृत्यु सम्पूर्ण संसारको हड़पजानेकी अभिलाषा कर रही हैं, उसके दांतोके नीचे श्राकर कोई नहीं बचा है और उसके दूसरी ओर भयंकर अंधकारसे भरा हुआ दुःखका स्थान और कल्पनामात्रसे कंपानेवाला नरक दिख पड़ता है । ये दोनों ( मृत्यु और नरक ) वेशकी परवाह नहीं करते हैं, वे इतने निष्ठुर है कि वे किसीको नहीं छोड़ते हैं, फिर भी प्रथम तीन श्लोकोंमें भावार्थरूपसे कहे अनुसार
आचरण करनेवाले महात्मा तो उनकों भी इसप्रकार जीत लेते हैं कि फिर उनके दर्शन भी नहीं करने पाते हैं । सारांशमें कहा जाय तो अजर-अमर होजाते हैं । अतएव शुद्ध चारित्र धारण करके मन में प्रसन्न हों, एकमात्र वेशमें पागल न हो जाओं । एक
ओर साधुपनका कर्त्तव्य और दूसरी और नारकी तथा मृत्युको ध्यानमें रखें। यह निश्चय मनमें समझना कि कर्त्तव्यच्युत हुमा कि दोनों राक्षस आ दबायेंगे। केवल वेश धारण करनेवालेको तो ऊलटे दोष
प्राप्त होते हैं. वेषेण माद्यसि यतेश्चरणं विनात्मन् !
पूजां च वाञ्छसि जनाबहुधोपधिं च । मुग्धप्रतारणभवे नरकेऽसि गन्ता,
न्यायं बिभर्षि तदजार