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५०६ ) अध्यात्मकल्पद्रुम
[त्रयोदश __" हे मुनि ! तेरे पास न तो कोई सिद्धि है, न ऊंची प्रकारकी कोई क्रिया, योग, तपस्या या ज्ञान, फिर भी अहंकारसे कदर्थना प्राप्तकर प्रसिद्धि प्राप्त करनेकी अभिलाषासे हे अधम ! तू क्यों व्यर्थ परिताप करता है ?" उपजाति.
विवेचन-मणिमा सिद्धि श्रादि पाठ सिद्धिये तेरेमें हों अथवा उच्च श्रेणिकी आतापना लेने योग्य या घोर परिषह उप. सर्गादि सहने योग्य क्रिया तेरे पास हो अथवा योगवहन तथा १ आठ सिद्धिये निम्नस्थ हैं
अणिमा सिद्धि-इससे शरीर इतना सूक्ष्म किया जा सकता है कि जिसप्रकार सुईके छिद्रमेंसे डोरा निकलता है उसीप्रकार उतनीसे स्थानमेंसे स्वयं निकल सकता है।
२ महिमा सिद्धि-अणिमा सिद्धिके विपरीत । इतना विशाल रूप बना सके कि मेरुपर्वत भी उसके शरीरके सामने जानु परिमाण प्रतीत हो ।
३ लघिमा सिद्धि-पवनसे अधिक हल्का (वजनमें) हो जाना ।
४ गरिमा सिद्धि-वज्रसे भी अत्यन्त भारी हो जाना इतना अधिक भारी हो जाना कि इन्द्रादिक देवता भी सहन न कर सकें ।
५ प्राप्ति शक्ति-शरीरकी इतनी ऊंचाई कर सके कि पृथ्वीपर होनेपर भी अंगुलीके अग्रभागसे मेरुपर्वतकी चोटी (चूलिका और ग्रहादिक) का स्पर्श कर सके (वैक्रिय शरीरसे नहीं )।
६ प्राकाम्यशक्तिः-पानीमें प्रवेश कर जमीनमें डुबकी लगा सके और जमीनमें प्रवेश कर पानीमें चल सके ।
७ इशित्वः- चक्रवर्ती और इन्द्रकी ऋद्धि प्रगट करनेमें शक्तिमान हो। ८ वशित्वः-सिंहादि क्रूर जन्तु भी वशीभूत हो जाय ।
१ योगवहन-सूत्र साधुसे पड़े जा सके, अमुक वरसकी दीक्षापर्याय के पश्चात् पढ़ सके और योगवहनकी क्रिया किये पश्चात् पढ़ सके । ये तीनों बातें अत्यन्त उपयोगी हैं परन्तु इसके हेतुके सम्बन्धमें विशेष विवेचन करनेका यहां स्थान नहीं है; परन्तु शास्त्रके उपयोगी रहस्यपर यह हकिकत अवलम्बित है । श्रावक श्रारम्भमें रक्त हो वहाँ रहस्यकी बात जाननेमें आनेसे अपवाद हो जाता है, साधु भी अमुक दीक्षापयार्यके पश्चात् ही अपवादमार्गको ग्रहण कर सकता है, कारण कि संयममें अमुक समय तक रमणतासे और ·