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अध्यात्मकल्पद्रुम [प्रयोदश सबका मुकाबला करनेसे जान पड़ता है कि हमारा कर्त्तव्य तो गुण उपार्जन करनेका है, लोकरञ्जन होता है या नहीं इसके जानने का हमारा काम नहीं है । फलकी इच्छा न रखनी चाहिये । अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये । गुणकी प्रशंसा तो बहुधा अपनेआप हो जाती है, यदि किसी समय शीघ्रता न हो, प्रशंसा होनेमें देर लगे तो उसके लिये अधीर न होकर धैर्य रक्खे ।
यह बहुत आवश्यक बात है जो थोड़ासा विचार करनेसे अपनेबाप स्पष्ट हो जाती है, फिर भी बड़े बड़े बुद्धिशाली पुरुष इसमें भूल करते हैं। मनुष्यों के विचारसे किसी कार्यमें सहसा संलम हो जाना या बाह्यदृष्टिसे उत्तेजित हो जाना अनजानका काम है । हे यति ! तेरा प्रयास तो बाह्यात्मा छोड़कर अन्तरा. स्मभावमें लीन हो परमात्मभाव प्रकट करनेका होना चाहिये, तो फिर तू अभतिक ऐसी बाह्यात्मदशामें क्यों विचरता है ? तेरेमें यदि गुण हों तो भी लोकसत्कारकी इच्छा न रखनी चाहिये और यदि गुण न हो तो तू लोकसत्कारकी इच्छा रखनेका अधिकारी भी नहीं है।
परिग्रहत्याग. परिग्रहं चेयजहा गृहादे
स्तत्किं नु धर्मोपकृतिच्छलात्तम् । करोषि शय्योपधिपुस्तकादे ,
गरोऽपि नामान्तरतोऽपि हन्ता ॥ २४ ॥
"घर आदि परिग्रह को तूने छोड़ दिये हैं तो फिर धर्मके उपकरण के बहानेसे शय्या, उपधि, पुस्तक आदिका .. स्वमिति वा पाठः। .................. .