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५१८ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[प्रयोदश विषयका अनेकों दृष्टान्तोंद्वारा वर्णन किया गया है। यह उपलक्षणसे समझलें कि अधिपति व्यतिरिक्त व्यक्तियों के लिये शास्त्र में लिखे उपकरणसे अधिक रखना भी परिग्रह है।
हे मुनि ! यदि तू किसी वस्तु को धार्मिक उपकरणका नाम देकर उनपर ममत्व रखेगा तो वे तुझे भवान्तरमें दुःख देगें; नाम बदलनेसे परिणाम नहीं बदल सकता है, परिणाम तो भभिप्राय बदलनेसे ही बदल सकता है । विषको 'फन' कहकर यदि नाम बदल दिया जाय तो उससे उसका दारुण फल मिले बिना नहीं रह सकता है, अथवा 'मिट्ठाई 'का नाम देनेसे विष अपना फल दिये बिना नहीं रह सकता है; इसीप्रकार परिग्रहको दूसरा कोई कल्पित नाम देनेसे काम सिद्ध नहीं हो सकता है । तेरी इच्छा हो तो उनको धर्मोपकरण कह या चाहे सो कह, परन्तु यदि उनपर तेरा ममत्व होगा तो वे तुझे अपना दुर्गुण बताये बिना न रहेगें।
धर्मके निमित्तसे रखा हुआ परिग्रह. परिग्रहात्स्वीकृतधर्मसाधना
भिधानमात्राकिमु मूढ़ ! तुष्यसि । न वेत्सि हेम्नाप्यतिभारिता तरी,
निमजयत्यङ्गिनमम्बुधो द्रुतम् ॥ २५ ॥
" हे मूढ़ ! धर्मके साधनको उपकरणादिका नाम देकर स्वीकार किये हुए परिग्रहोंसे तू क्यों कर प्रसन्न होता है ? क्या तू नहीं जानता है कि यदि जहाजमें सोनेका भार भी भरा हो तो भी वह तो उसमें बैठनेवाले प्राणियोंको समुद्रमें ही डूबोता है ?"
वंशस्थ, . .. .. विवेचन--सोना सबको प्रिय है, उसके रंगको देखकर