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५१४ ) अध्यात्मकल्पद्रुम
[त्रयोदश विवेचन-यदि तू यह मानता हो कि मैं तो सब जनरञ्जनके लिये ही करता हूँ और सभारञ्जनके लिये व्याख्यान देता हूँ अथवा कोकशास्त्र, कामशास्त्र आदिका स्वाध्याय करता हूँ अथवा मायायुत व्यवहार और वचनरचना रखता हूँ जो तुझे कहना है कि हे भाई ! ऐसा लोकरंजन कितने समय तक चलनेवाला है ? यहां पांच पचास पुरुष यदि तेरी स्तुति करते हो तो उसमें क्या हो गया है ? सौ वर्ष पश्चात् तू कहाँ जायगा और वे कहां जायेगें ? अपितु तेरी मृत्युके पश्चात् लोगोंकी तेरे प्रति क्या धारणा होगी क्या तू उसको सुन सकेगा ? अतएव इस सब बाह्य व्यवहारका परित्याग करदे, सच्चे लाभके लिये प्रयास कर और विशेषतया मन, वचन और कायाके व्यापारको एक समान रखने का प्रयास कर । यदि इसप्रकार करेगा तो बहुत लाभ होगा। अन्यथा थोडासा विचार तो कर कि जनरञ्जनसे क्या लाभ है ? तुझे क्षणिक सुखका भी सच्चा भान नहीं है। तू बिना सोचे-समझे दौड़ता रहता है । विचार, जाग्रत हो।
xxx १७-२३ इन सात श्लोकोंमे लोकसत्कार और लोकरञ्जनका वर्णन किया गया है। मनुष्य के मनोविकारोंको देखते हुए यह बहुत निर्बल मनोविकार है और थोड़ासा वास्तविक विचार किया जाय तो इस मनोविकारकी कमजोरी शिघ्र ही दृष्टि. गोचर हो सकती है। वास्तविक रूपसे लोकसत्कार या वन्दन पूजामें कुछ दम ( सार ) नहीं है, परन्तु यह जीव ऐसी विभाव. दशाको प्राप्त हो गया है कि यदि कोई मनुष्य इसकी प्रशंसा करने लगे तो उसको सुनकर-जानकर बहुत प्रसन्न होता है । उसमें वास्तवमें देखा जाय तो झुठा मान होता है किन्तु फिर भी यह जीव उसका विचार नहीं करता है । छोटी छोटी बातोंमें ही बादशाह बन जाता है और यदि कभी कोई उत्तम काम कर