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अधिकार ]
यतिशिक्षा उपषि, उपाभय, माहार और शिष्य तुझे देते हैं। अतएव यदि तू बिना गुणके ही ऋषि( यति )का वेश धारण करता हो तो तेरी दशा ठगके सरश होगी।" वंशस्वविन.
• विवेचन-इसका अर्थतो स्पष्ट ही है। तेरे सेवक अच्छे अच्छे कपड़े तेरेको भेट करना चाहते हैं, अपने घरमें यदि कोई अच्छी वस्तु बमाते है तो सबसे पहले तुझे भामंत्रण करते हैं, स्वयं टूटीफूटी जर्जरित झोपड़ी में रहते हैं फिर भी तुझको तो रम्य महलके सदृश्य उपाश्रय रहनेको देते हैं और अन्तमें अपने दुलारे नयनोंके तारे सुकुमार पुत्र-पुत्रियोंको भी तुझे शिष्यके रूपमें अर्पणकर देते हैं'-ये सब तेरेमें साधुपनके उत्तम गुण और दश यतिधोका होना समझकर देते हैं। इन गुणों रहित तेरे जीवनको तो दंभी-पापी-धूर्त भादिकी उपमा दी जा सकती हैं और जीवनका फल भी वैसा ही प्राप्त होगा।
+ + ७-८ इन दोनो श्लोकोंमें लोकरंजनसे बचकर मुनिपनके गुण ग्रहण करनेका उपदेश किया गया है। दंभ-कपट भादि करके बाहरसे देखाव करनेवालेको इससे बहुत कुछ सम. झनेका है । स्वमान ( Self-respect ) के रूपमें वर्तमानकाल में दंभको श्रेष्ट रूप दिया जाता है । बुद्धिमान यतिको उसमें क्या
१ इस कसे वैराग्यवान् पुत्र-पुत्रियों को शिष्यके रूपमें अर्पण करनेका प्रचार प्राचीन कालमें था ऐसा प्रतीत होता है । इस बातमें गृहस्थ .
और मातापिता उदारचित्त होते थे, उसीप्रकार साधु भी शिष्यको ग्रहण कर लेते थे ऐसा जान पड़ता है। इस विषयमें हीरविजयसूरि आदिके दृष्टान्त प्रसिद्ध है । इस विषय में श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य योगशास्त्र में तीसरे प्रकाशके अन्तमें सात क्षेत्रके निरूपणमें पुत्र-पुत्रियोंके ग्रहण करनेका कम स्पष्टतया प्रगट करते हैं; और उसी विषयमें श्रीमानविजयजी उपाध्याय धर्मसंग्रहमें स्पष्ट उल्लेख करते हैं।