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अध्यात्मपाल्पद्रुम
[प्रयोदश सावयतो नरकमेव विभावये ते ॥११॥
"तू सदैव दिन और रात्रिमें नोबार करेमि मंते'का पाठ करते समय कहता है कि मैं सर्वथा सावध काम न करूं किन्तु फिर बारम्बार वह ही कार्य किया करता है । ये सावध कर्म करके तू असत्य भाषण करनेवाला होनेसे प्रसको भी धोखा देता है और मेरी तो यह धारणा है कि उस पापके मारसे भारी होनेपर तेरा तो नरकगामी होना जरूरी है । " वसंततिलका.
विवेचन-करेमि भंते सामाइभं सव्वं सावजं जोगं पञ्चक्खामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं' इत्यादि अर्थात् इस सम्पूर्ण जीवनमें मन, वचन, कायासे सावध कार्य न तो स्वयं करुंगा, न दूसरोंसे करवाउंगा, न करनेवालेको मनमें अच्छा समझुगा इस प्रकारके शब्द तू प्रत्येक दिन दोनों समय प्रतिक्रमणमें और पोरसि पढाते समय बारम्बार बोलता है; किन्तु फिर भी जो उनको कार्यरूपमें परिणत नहीं करता है यह तो नितान्त अनुचित है। इससे तो तू दुगने पापका संग्रह करता है। सावध कर्मसे तुझे पाप लगता है
और असत्य भाषणसे भी पाप लगता है । वचन और व्यवहार दोनों एक समान होने चाहिये । जहाँ मन, वचन और कायाकी त्रिपुटी अलग अलग तीन रास्तोंमें दौड़ने लगती है वहां दुःखका स्रोत बह निकलता है । वचन-दिखाव-उपदेश भिन्न प्रकारका करना और व्यवहार इसके विपरीत अन्य प्रकारका ही रखनेसे परभवमें अनेक प्रकारकी मानसिक उपाधियोंके उपरान्त नरक के सदृश महाभयंकर शारीरिक पीड़ामोंको भोगना पड़ता है और इस भवमें दिखाव बनाये रखने के लिये कितनी व्यर्थ खटपट करनी पड़ती है । विद्वानोंका कहना है कि ---
यथा चित्तं तथा वाचो; यथा वाचस्तथा क्रियाः। चित्ते वाशि क्रियायां च, साधूनामेकरूपता ॥१॥