________________
अध्यात्मकल्पद्रुम [त्रयोदश उठाता है । साधुपनके अनुसार यदि तेरा आचारविचार न हो तो तेरा उन वस्तुओं पर कुछ भी अधिकार नहीं है । यदि बिना हक तू कोई वस्तु ग्रहण करेगा तो तू कर्जदार होगा और तदुपरान्त किये हुए दंभके लिये महादुर्गतिको प्राप्त होगा।
दंभीको भवान्तरमें तो महा दुःख होता ही है किन्तु यहां भी अनेकों उपाधियोंका सामना करना पड़ता है। झुठे दोंग बनाये रखनेके लिये अनेक खटपट करनी पड़ती है, असत्य बोलना पड़ता है, चापलुसी करनी पड़ती है और फिर भी भेद खुल जानेका सदैव भय बना रहता है । अतएव उपदेश और व्यवहार भिन्न भिन्न रखना मायामृषावाद कहलाता है। इस विषयमें और अधिक विषेचन प्रसंग आनेपर किया जायगा ।
संयमके लिये यत्न न करनेवालेको हितबोध. माजीविकादिविविधार्तिभृशानिशार्ताः,
कुछेण केऽपि महतैव सृजन्ति धर्मान् । तेभ्योऽपि निर्दय ! जिघृक्षसि सर्वमिष्टं,
नो संयमे च यतसे भविता कथं ही ? ॥१३॥ ___ "आजीविका चलाने आदि अनेक पीड़ाओंसे रातदिन बहुत परेशान होते हुए अनेकों गृहस्थी महामश्किलसे धर्मकार्य कर सकते हैं उनके पाससे भी हे दयाहीन यति ! तू तेरी सर्व इष्ट वस्तु प्राप्त करनेकी अभिलाषा रखता है और संयमके लिये प्रयत्न नहीं करता है, तो फिर तेरी क्या दशा होगी।"
. वसंततिलका. विवेचन-इसमें दो प्रकारकी दया बतलाई गई है। बेचारे भद्रक श्रावक महान कठिनतासे अपनी आजीविका उपा. जन करते हैं, परन्तु वैसी सामान्य स्थितिके अद्धालु बन्धु भी