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अधिकार]
यतिशिक्षा अर्थात् जैसे विचार हो उसी अनुसार वचन और जैसे वचन उसी अनुसार व्यवहार होना चाहिये । साधुकी इसप्रकार मन, वचन, कायाकी प्रवृत्ति एकसी होती है । यहां पर यह बता देना
आवश्यक है कि अभ्यास दशामें जैसी बाणी होती है वैसा सर्वथा व्यवहार नहीं हो सकता है, परन्तु शुद्ध चित्तसे मनमें वैसा अपना व्यवहार होनेका दावा किये बिना ही और झूठा ढोंग किये बिना अभ्यास करने में कोई बाधा नहीं है।
यतिके सावद्य आचरणमें परवंचनका दोष. वेषोपदेशाद्युपधिप्रतारिता,
ददत्यभीष्टानृजवोऽधुना जनाः। मुझे च शेषे च सुखं विचेष्टसे,
भवान्तरे ज्ञास्यसि तत्फलं पुनः? ॥१२॥
" वेष, उपदेश और कपटसे भ्रमाये हुए भद्रक पुरुष अभीतक तुझे वाञ्छित वस्तुयें देते हैं, तू सुखसे खाता है, सोता है और भ्रमण किया करता है, परन्तु भविष्य भवमें इनके द्वारा होनेवाले फलकी अच्छी तरहसे तुझे समझ मालूम पड़ेगी।"
उपजाति. विवेचन-ऊपर चोथे तथा पांचवें श्लोकमें इस विषयपर बहुत कुछ कहा गया है । हे यति ! भद्रक जीव तुझे गुणवान समझकर स्वयं जिन वस्तुओंके खाने के लिये लालयीत होते हैं उनको स्वयं न खाकर तुझे खानेको देते हैं, इसीप्रकार तेरे लिये हरप्रकारकी सुविधा कर देते हैं, परन्तु उनसे तू अनुचित नाम
१ इंद्रवंशा और वंशस्थका शंकर होनेसे एक उपजाति होता है। यह उपजाति उस भांतिका है । छन्दोनुशासन का अवलोकन करें। ....