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अधिकार ] यतिशिक्षा [१९९ साधुको देखकर अपने अच्छसे.. अच्छे वनपात्र प्रादि वस्तुको भेट कर देनेमें नहीं हिचकचाते हैं, ऐसे अत्यन्त खरे पसीनेसे उपार्जित द्रव्यसे खरीदी हुई वस्तुओंको तू प्रहण करता है और अपने निजके कर्तव्यके पालन करने में तू आलस्य करता है; न इन्द्रियसंयम करता है, न मनपर अंकुश रखता है, न पांच महाव्रताका बराबर निरतिचारपनसे पालन ही करता है । इस. लिये हे यति ! तू अपनेआप थोडासा विचार कर कि तेरे इस कायोंका क्या परिणाम होगा ? संसारका यह स्वभाव ही है कि दूध पीनेकी इच्छा रखनेवाली बिल्ली दूधको ही देखती है परन्तु सिरपर गिरनेवाली लकड़ीको नहीं देखती है; परन्तु तेरा कर्तव्य तो यह है कि स्वामीका कार्य भलिभांति करे, अपने कर्तव्यका पालन करे, रुखीसूखी रोटीका टुकड़ा भी कितना स्वादिष्ट हो इसका अनुभव करे, अर्थात् अनुभवसे जानले, तेरा निजका क्या कर्तव्य है इसका विचार करे, और इसीके साथ ही साथ यह भी देखे कि सर्व जीवोंके प्रति तेरा क्या कर्तव्य है।
कई वार साधुको शोभा न देनेवाले आचरण किसी किसी व्यक्तिमें देखे जाते हैं, महाव्रतका भंग होता देखा जाता है, अथवा अकथनीय अभिमानसे अन्य गुणवानको नमस्कार न करने, स्वदोष छिपाने और दंभका वर्णन सुनने में आता है। संसारकी स्थूल मर्यावासे ऊंची श्रेणिको पहुंचे हुए हे यतिवर्य ! यह सब संसारका हेतु है, ऐसे व्यवहार में नितान्त हानि ही है। कुछ लाभ नहीं है । तेरे वस्त्रपात्रसे मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता है । मनपर जब संयम रंग चढ़ेगा तभी कुछ हो सकेगा। अन्यथा तो केवल दंभबुद्धिसे जो वस्त्र धारण किये जाते हैं ये केवल-मात्र नाटकके खेल के सदृश है। निर्गुण मुनिकी भक्तिसे उसे तथा भक्तोंको
'कुछ फल नहीं हो सकता हैं।