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अध्यात्मकल्पद्रुम [प्रयोदश पाराधितो वा गुणवान् स्वयं तरन् , ___ भवाब्धिमस्मानपि तारयिष्यति । श्रयन्ति ये त्वामिति भूरिभक्तिभिः,
_ फलं तवैषां च किमस्ति निर्गुण ! ॥१॥ ... "इस मुणवान पुरुषकी आराधना करनेसे जैसे यह स्वयं भक्समुद्रसे तैरता है वैसे ही अपने को भी तेरा देगा ऐसा समझकर कितने ही प्राणी भक्तिभावसे तेरा माश्रय लेते हैं । इससे हे निर्गुण ! तुझे और उन्हें क्या लाभ है ?"
इन्द्रवंशा और वंशस्थ ( उपजाति ). विवेचन-यह साधु गुणवान है ऐसा समझकर कितने ही श्रावक भक्तिभावसे तेरेको कई वस्तुएं भेंट करते हैं, परन्तु इससे उनको पुण्य उपार्जन होगा ऐसा समझकर उनका कारणभूत होनेसे तुझे भी पुण्य उपार्जन होगा, यदि ऐसा तू समझता हो तो यह तेरी बड़ी भारी भूल है, क्यों कि तेरेमें उनसे कल्पना किये हुए श्रेष्ठ गुणो से एक भी गुण नहीं है । तेरेमें गुण हो
और भवसमुद्र तैरनेकी शक्ति हो तो दूसरी बात है, अन्यथा व्यर्थ कल्पना करनेसे तुझे कुछ लाभ नहीं हो सकेगा, इतना ही नहि अपितु आगेके श्लोको में बताया जायगा उसके अनुसार तेरे इस व्यवहारसे तो पापका ही उपार्जन होगा। ____बेचारे अल्पज्ञ जीव भद्रकभावसे तेरा धर्मबुद्धिसे जो आश्रय करते हैं वह संसारसमुद्र तैरनेके लिये सुझसे सहायता पानेकी इच्छासे करते हैं, परन्तु ऐसी सहायता जब तू नहीं देता है, न दे सकता है; तो फिर तुझे क्या लाभ होगा?
निर्गुण मुनिको ऊलटा पापबंध होता है. स्वयं प्रमादैनिपतन् भवाम्बुधौ, .