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अभ्यामकल्पाम [योदश म है इसे समझ लेना चाहिये। यह मूदुल-अवगुण बोधिवृक्षका घातक है और प्राणीको इसका भान नहीं होने देता है कि उसका वास्तविक क्या कर्त्तव्य है ? । प्रत्येक यति-साधुको स्मरण रहे कि उसका काम केवल मनुष्योंको प्रसन्न करनेका नहीं हैं, परन्तु बराबर शुद्ध मार्गमें जोड़ने का है। संसारके उपदेशक बननेका दावाकर गुप्तरूपसे कुकर्म करनेवाले शोकीनोंके लिये तो अधोलोक तैयार है, परन्तु यहां कल्पना किये मुनिवर्य तो मनमें भी कुविचार न आने दें, और कायाका व्यवहार तो बहुत शुद्ध रक्खें । ऐसे मुनि ही साधु कहला सकते हैं, अन्य तो यतिके अति और गुरुजीके गोरजी हो गये हैं इन शब्दोंके अनुसार वर्तनमें भी अपभ्रंश बताते हैं। वीरपरमात्मा शुद्ध पवनका संचार करें !
लोकरञ्जन वास्तव में क्या है ? यदि मनुष्य अल्प समयके लिये कहदे कि अमुक यति भला है इससे क्या प्रयोजन १ जहाँ पर सब सुख-दुःखका आधार कर्मबंधपर है वहां बाह्यदृष्टिकी किंमत केवल बिन्दुमात्र है; अपितु ऐसा होता है कि शुद्धाचरणवाले पुरुषको कई कारणोंसे कई बार हानि होती है तब मनुष्य उसकी निन्दा करते हैं, किन्तु साधुका उससे कुछ बिगाड़ नहीं होता है। मल्लिनाथके स्तवनमें उपाध्यायजीने लोकरंजन और लोकोत्तररंजनका समतोलकर लोकोत्तररंजनकी प्रधानता बताई है। अनन्तकालचक्रके रेलेमें घिसड़ाता पामर प्राणी ! तू तेरे माने हुए थोड़ेसे घेरेकी ( सर्कलके ) ऊपर ऊपरकी प्रशंसामें पागल होकर सब कुछ खो देनेकी भूल न कर ।
यतिपमका सुख और कर्तव्य नाजीविकाप्रणयिनीलनयादिचिन्ता,.