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४८६] अध्यात्मकल्पद्रुम [त्रयोदश
"हे भास्मन् ! तूं व्यवहार ( चारित्र) बिना ही एक मात्र यतिके वेशसे ही गीत (अभिमानी ) रहता है और फिर लोगोंद्वारा पूजाना चाहता है इससे यह प्रतीत होता है कि तू भोले विश्वास रखनेवाले प्राणियोंको धोखा देने के कारण अवश्य नरकमें जावेगा। सचमुच तूं 'भजागलकतरीन्याय' धारण करता है।" वसंततिलका.
विवेचन-उपधि ' धर्मोपकरणरूप साधुके वस्त्र, पात्र भाविका समूहवाची शब्द है । मनुष्य वंदन-नमस्कार करे ऐसी इच्छा रखना और अनेक प्रकारकी उपधि मिलनेकी इच्छा रखना यह गुण बिना अनुचित है । वंदन योग्य कौन है ? उपधि किस लिये रखनी चाहिये ? ये कुछ मौजशोकका साधन नहीं है, ये तो संयमगुणकी वृद्धि में बाधा न हो इसके उत्तम साधन हैं। ऐसी बायाचारकी अभिलाषा रखना और अपना व्यवहार किश्चितमात्र भी ऊच न बनाना यह अपने हाथोंसे अपना ही वध करने के समान है। जिस प्रकार बकरीको मारने के लिये एक कसाई छुरी दुढ़ने लगा, किन्तु उसको छुरी नजर न आई; परन्तु जाति. स्वभावसे बकरीने भूमिकु उखेडना प्रारम्भ किया, और छुरीको जो उसे नजर आती थी छुपाने लगी, ऊपर मिट्टी फैलाई; और उस भागपर अपनी गर्दन रखकर उसे छिपाने के विचारसे बैंठ गई । परन्तु ऐसा करने से उस छुरीके लगनेसे वह मृत्युकी शिकार बन गई। यह 'अजागलकर्तरी ' न्याय है। इस प्रकार अपने हाथोंसे ही अपने नाशको आमंत्रित करना नितान्त
अनुचित है । एकमात्र यतिके वेश धारण करने भौर कुव्यवहार रखनेसे दुर्गतिरूप दुःखको स्वयं बुलाना है । शुद्ध चारित्रवान् भी कभी वन्न, नमस्कारकी अभिलाषा नहीं रखते हैं, परन्तु यदि वे कभी ऐसी अभिलाषा रक्खे तो भी वह वो नीतिको अपे