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५८४ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [त्रयोदश अनुसार सज्जायध्यान भादि है, तो फिर तूं जब मोक्ष जानेकी तो वाच्छा करता है तो उसके विरुद्ध कार्य क्यों करता है । मोक्षनगर बहुत दूर है, वहां जाने के लिये संसारसमुद्र को लाघना पड़ेगा, उसके लिये योग्य नैयाका तो तूं प्रबन्ध नहीं करता, तो फिर तुं वहाँ किस प्रकार पहुँच सकेगा ? तुझे यह अच्छी तरहसे समझ लेना चाहिये कि केवल वेशमात्रसे मोक्ष नहीं मिल शकता है । वेशके अनुसार क्रिया व्यवहार होना चाहिये । अन्यथा तो मेरुपर्वत जितने भी प्रोघे-मुहपत्तिये भी क्यों न करले ? किन्तु इससे आत्माका कुछ कल्याण नहीं हो सकता है।
वेशमात्रसे कुछ नहीं मिल सकता है. आजीविकाथमिह यद्यतिवेषमेष,
धत्से चरित्रममलं न तु कष्टभीरुः । तद्वत्सि किं न न बिभेति जगजिघृक्षु
मृत्युः कुतोऽपि नरकश्च न वेषमात्रात् ॥४॥ 'तू आजीविका के लिये ही इस संसारमें यतिका वेश धारण करता है, परन्तु कष्टसे डरकर शुद्ध चारित्र नहीं रखता है, किन्तु तुझे इस बातका ध्यान नहीं है कि समस्त जगत्को ग्रहण करने की अभिलाष रखनेवाली मृत्यु और नरक कभी किसी प्राणी के वेशमात्रसे नहीं डरते हैं।" वसंततिलका.
विवेचन-कोई अज्ञानी जीव संसारके दुःखोंसे दुःखित होकर दुःखगर्भित वैराग्यका वेश धारणकर (यति होने पश्चात् ) वहाँ भी श्रावकोंसे उत्तम उत्तम गोचरी पानेका ही लोभ रखता है, परन्तु चारित्रकी क्रिया नहीं करता है, प्रथम तीन श्लोकोंमें भावार्थ रूपसे बताया हुआ वर्तन किश्चितमात्र भी नहीं रखता है परन्तु
१ मेव इत्यपि पाठान्तरं दृश्यते । २ जगजिघत्सुरिति पाठान्तरं ।