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अधिकार ] यतिशिक्षा
[४.१ ४-चार प्रकारके क्रोध, मान, माया और लोभ तथा उनके जन्मदाता तथा उनके संगी हास्य, रति, अरति आदि नोकषाय जिनका स्वरूप सातवें अधिकारमें बताया गया था वे नहीं करने चाहिये अथवा जहाँतक हो सके उनके त्याग करनेका प्रयत्न करना चाहिये ।
. ५-भूख, तरस सहना श्रादि बाईस प्रकारके परिसह हैं जिनका स्वरूप शास्त्र में दिया हुआ है और इस अधिकारके अड़तीसवें श्लोकके विवेचन करते समय उनका कुछ कुछ स्वरूप बताया जायगा उनको तथा मनुष्य और देवताओं आदिके किये हुए अनुकूल तथा प्रतिकूल उपसगोंको समतापूर्वक सहन करने चाहिये । इस समय मनमें किश्चितमात्र भी क्रोध, द्वेष या क्लेश न होना चाहिये । इसप्रकार अपना व्यवहार बनाकर समतामय जीवन बनाना चाहिये। . .
६-शास्त्रकार चार मुख्य तथा उनके अन्तर्गत मोलह प्रकारके उपसर्ग बतलाते हैं।
१ देवकृत१ हास्यसे, २ द्वेषसे, ३ विमर्शसे (विचारसहन कर सकता है या नहीं यह दृढता देखनेकी परीक्षा करना ), ४ पृथक्विमात्रा ( धर्मकी इर्ष्या आदिके कारण जो वैकिय शरीर बनाकर उपसर्ग करते हैं )।
२ मनुष्यकृत१ हास्यसे, २ द्वेषसे, ३ विमर्शसे, ४ कुशीलसे (ब्रह्म. चारीसे जो पुत्र होता है वह बलवान होता है ऐसा समझकर धर्मवासनारहित पुरुष ब्रह्मचर्य से हटानेके लिये अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग करता है)।