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अधिकार ] । यतिशिक्षा स्वाध्यायमाधित्ससि नो प्रमादैः,
शुद्धा न गुप्तीः समितीश्च धत्से। तपो द्विधा नार्जसि देहमोहा, - दल्पेऽहि हेतौ दधसे कषायान् ॥ २॥ परिषहान्नो सहसे न चोप
सर्गान्न शीलाङ्गधरोऽपि चासि ! तन्मोक्ष्यमाणोऽपि भवाब्धिपारं,
मुने! कथं यास्यसि वेषमात्रात् ? युग्मम् ॥
" हे मुनि ! तू विकथादि प्रमाद करके स्वाध्याय ( सज्झाय ध्यान ) करनेकी इच्छा नहीं करता है, विषयादि प्रमादसे समिति तथा गुप्ति धारण नहीं करता है, शरीरपरके ममत्वके कारण दोनों प्रकारके तप नहीं करता है, नहिवत् (नजेवा) कारणसे कषाय करता है, परिसह तथा उपसर्गोको सहन नहीं करता है, (अठारह हजार ) शीलांग धारण नहीं करता है फिर भी तू मोक्षप्राप्तिकी अभिलाषा रखता है, परन्तु हे मुनि ! केवल वेशमात्रसे संसारसमुद्रका पार कैसे पा सकेगा ?"
उपजाति. विवेचन-ऊपर भावनामय मुनिस्वरूपका वर्णन किया गया था। यहाँ व्यवहाररूपसे उन्हें क्या करना चाहिये इसका वर्णन किया जाता है।
१-मुनिको सदैव पांच प्रकारका स्वाध्याय करना चाहिये । . बांचना ( पढ़ना), पृच्छना (शंका-निवारण करना); परावर्तन (दुहराना-वीजन ), अनुप्रेक्षा (मनन करना ) और धर्मकथा ए पांच प्रकार के स्वाध्याय हैं। १ अल्पेऽपीति पाठान्तरं ।