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४८०] अध्यात्मकल्पद्रुम
[त्रयोदश २-पांच समिति और तीन गुप्ति प्रवचनमाता कहलाती है। यह साधुपनका मुख्य लक्षण है। निर्जीव मार्गमें सूर्य निकलनेके पश्चात् साढ़ेतीन हाथ आगे दृष्टि रखकर, देखकर चलना इर्यासमिति कहलाती है।
निरवद्य, सच्ची, हितकारी और प्रिय वचन विचारकर बोलना भाषासमिति कहलाती है।
अन्न-पानी आदि ४२ दोषो रहित लेना एषणासमिति कहलाती है।
___ कोई भी पदार्थ जीवरहित भूमि देखकर तथा प्रमार्जना करके रखना या लेना आदानभंडभत्तनिक्षेपणा समिति कहलाती है।
मल, मूत्रादि जीवरहित भूमिपर डालना परिष्ठापनिकासमिति कहलाती है।
मनपर अशुभ चिन्तवनके लिये पूर्ण अंकुश रखना अथवा सर्वथा मनोव्यापार न करना मनोगुप्ति कहलाती है।
किसी भी प्रकारका भला या बुरा वचन न बोलना अथवा सावध वर्जी निविद्य बोलना वचनगुप्ति कहलाती है । कायाको अजयणापनसे न प्रवर्तावना कायगुप्ति कहलाती है।
३-साधुको दो प्रकारके तप करने चाहिये ।
बाह्यतप-- उपवासादि करके कुछ नहीं खाना, कम खाना, कम वस्तुयें खाना, रसवाली वस्तुएं घी आदि न खाना, कर्मक्षय करने के लिये शरीरको कष्ट देना और अंगोपांग, इन्द्रियों और मनको संकोच कर रखना । अभ्यंतरतप-किये हुए पापकृत्योंका प्रायश्चित करना, जिनादि दशका यथायोग्य विनय करना, जिनादि दशका यथायोग्य वैयावच्च करना, वांचना आदि पांच प्रकारका स्वाध्याय करना, ध्यान करना और बाह्य अभ्यंतर उपाधियोंका त्याग करना-अभ्यंतरतप कहलाता है।