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अधिकार] - गुरुशुद्धिः
[४६७ विशेष विचारने योग्य बात यह है कि ऐसे सुन्दर मनुष्य. भव, पार्यक्षेत्र, शरीरकी अनुकूलता, साधुनोंका योग, मनकी स्थिरता और दूसरी अनेक प्रकारकी सामग्रियोंका सद्भाव इस जीवको प्राप्त हुआ है, फिर भी यह प्रमादमें समय नष्ट कर डालेगा तो फिर ऐसा अवसर मिलना कठिन है । अनन्त भवमें भटकनेके पश्चात् भी ऐसी अनुकूलता प्राप्त होना दुर्लभ है, कठिन है, अशक्य है । प्रन्थकर्ता कहते हैं कि यह सरोवर जाकर भी प्यासा आनेके समान है और इससे यथास्थित वस्तुस्वरूपका ज्ञान होता है । ऐसे प्रसंगोंका तो ऐसा उचित लाभ लेना चाहिये कि फिर इस भवके फेरे और दूसरोंकी नौकरी तथा श्राशीभाव सदैवके लिये मिट जावें। देवगुरु-धर्मपर अन्तरंग प्रीति बिना जन्म प्रसार है. न धर्मचिन्ता गुरुदेवभक्ति
र्येषां न वैराग्यलवोऽपि चित्ते। तेषां प्रसूक्लेशफलः पशूना
मिवोद्भवः स्यादुदरम्भरीणाम् ।। १६ ॥
"जिस प्राणीको धर्म सम्बन्धी चिन्ता, गुरु और देवकी और भक्ति और वैराग्यका अंशमात्र भी चित्र में न हो ऐसे पेटभराओंका जन्म पशुतुल्य है, उत्पन्न करनेवाली माताको क्लेश देनेवाला ही है।"
उपजाति. विवेचन-मेरा जनसमूह प्रति क्या कर्त्तव्य है ? मैं कौन हूँ ? मेरा कर्तव्य पूरा करने के लिये दिनभरमें मैने कौन कौन-से . प्रयत्न किये हैं ? उनमें मैं कहाँतक सफल हुआ ? आजके कार्यों में कितनी निष्फलता रही ? किस कारणसे रही १ आज छोड़ा है वहाँ से आनेवाले समयमें किस प्रकार प्रारम्भ करना ?