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अध्यात्मकल्पद्रुम [द्वादश कर्तव्य पालन करने-उपकार करनेके लिये पानेवाले कल सवेरके जैसा मांगलिक दिन एक भी नहीं है । इसको शास्त्रकार धर्मचिन्ता-कव्यपरायण वृत्ति कहते हैं।
इस अधिकारमें बताई रीतिके अनुसार पसंद किये गुरुमहाराज और उनसे बताये देव तथा धर्मपर एकान्त श्रद्धा और भक्ति । इस भकिम देखाव या भाडम्बर नहीं परन्तु अन्त:करणकी उर्मियोंका उत्साह । " चित्त प्रसन्ने रे पूजनफल कछु, पूजा अखंडित एह" इस वाक्यमें बताये हुए भावका यथार्थ्य-इसका नाम देवगुरुभक्ति है ।
इस संसारके सब पदार्थ अस्थिर हैं, भल्प समय स्थायी है, पौद्गलिक है, यह जीव शुद्ध निरंजन निर्लेप है, अनन्तज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप है, उपाधिसहित जो दिख पड़ता है वह इसकी विभावदशा है, कर्मजन्य है । शुद्ध दशामें इन इन सबोंसे रहित है। भात्मिक वस्तुका आदरकर पौद्गलिक वस्तुओंका त्याग करना, इन दोनोंका भेद कर देना, इसको खराब समझ कर पौद्गलिक भाव त्याग कर आत्मिकभाव आदरनका नाम वैराग्य है।
प्रत्येक प्राणीको धर्मचिन्ता, गुरुभक्ति और वैराग्यवासित हृदयवाला होना चाहिये । जब ये तीनो भाव हृदयमें गहरा स्थान ले लेते हैं तब ही संसारका अन्त होसकता है। जो ये तीनों भाव हृदयमें धारण नहीं करते हैं वे चाहे बाहरसे उत्तम दिखनेवाले क्यों न हों, परन्तु वास्तवमें इस भवमें सुखमें मन और उसके प्राप्त करनेके साधनोंको एकत्र करनेवाले और पेटभरा ही हैं। वे जन्म लेकर अपनी माताको प्रसवकी महावेदना और
यौवनके नाशका कष्ट मात्र देनेवाले हैं, परन्तु स्वयं तो ऐसे .. उत्तम मनुष्य भवके अन्तमें अनन्त संसार बढ़ाकर, कर्मकादवसे
अशक हो भटकते रहते हैं।