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अधिकार ] .. गुरुशुद्धिः . . [४६५ जब वही जंगल नवपावित एमा, तप सबको वापीस वहां ले भाया । इसप्रकार अत्यन्त कठिनताके समयमें भी उसने . अपनी जीवनकी परवाह न की, परन्तु माश्रितोंके तारनेके महाप्रयासमें भरसक पात्मभोग करनेका साहस. किया, यह सुगुरुके लक्षण है। इस उक्त सिंह के परित्रको देखकर एक शियाल भी समीपवर्ती जंगलका स्वामी हुला और वैसे ही प्रसंगके आने पर पशुओंसहित नदीको लांघनेका प्रयास करने लगा, परन्तु उसमें आत्मबल तथा अधिकार न होनेसे वह स्वयं भी डूब गया और आश्रितोंको भी डूबा दिया ।सप्रकार भगीतार्थ कुगुरु स्वयं संसार-समुद्र में डूबता है और आश्रितोंको भी खूबाता है।" .. इस सिंह और शियालके दृष्टान्तसे एक दूसरी बात यह
भी प्रगट होती है कि जो प्रात्मभोग दे देनेका साहस बतलाये बिना और अधिकारकी प्राप्ति बिना अधिपतिका पद धारण करनेकी अभिलाषा करते हैं वे अपने जातिकी भी महान् हानि करते हैं।
सूरिमहाराजका कहना है कि दूसरे प्रकारके गुरु तो न मिले तो भी अधिक श्रेष्ठ है, उनके सो न मिलनेसे ही कल्याण है । चाहे जितने कुगुरु हों, संसार वासनायुक्त हों फिर भी वीर.. : का वेश है ऐसा विचारकर गुण-अवगुण की परीक्षा किये बिना ही चाहे जिसको नमस्कार कर गुरुरूपसे आदर करनेवालोकों इस छोटे-से श्लोकसे बहुत कुछ शिखनेको मिलता है। शास्त्रकार ऐसे दृष्टिरागको या अन्ध अनुकरणको उत्तेजना नहीं देते हैं। गुरुके योग होनेपर भी प्रमादको करे वह निर्भागी है.
पूर्णे तटाके तृषितः सदैव,