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अधिकार
गुरुशुद्धिः साथ नहीं मीला सकते, कारण हमको उसका ज्ञान नहीं है। परन्तु कारण बिना कार्य नहीं हो सकता है और मनकी अनेक व्यथा तथा शरीरकी गंभीर व्याधियें होती है वे सब अमुक कारणसे ही होना चाहिये । जिनका मुख्य भाग यहां दिया गया है।
इस श्लोकको ग्यारवें श्लोकके साथ मीलाकर इसका भाव समझना चाहिये । ग्यारवें श्लोकमें संपत्तिके कारण बताये हैं और इसमें विपत्तिके कारण बताये हैं। संपत्तिके कारणोंको ग्रहण करनेके वजाय विपत्तिके कारणोंको छोड़ने की अधिक भावश्यकता है इस लिये ग्यारवें श्लोकसे इस श्लोक में कहे भाव अधिक मनन करने योग्य है । जिनेश्वर तरफ अभक्ति और गुरुकी अवज्ञा ये दोनों धर्मकी अयोग्यता बतलाते हैं, व्यापारादिमें अनुचित आचरण और अधर्मीका संग-ये दो धर्मभ्रष्टपन प्रगट करते हैं और मातापिताकी उपेक्षा तथा दूसरोंको ठगनेकी बुद्धि यह व्यवहारकी विमुखता प्रगट करते हैं । इन छ दोषोवालेको पद-पदपर विपत्तिये होनी चाहिये । इसके विपरीत यदि कभी कोई समय अच्छा निकल जाय तो वह किसी पूर्वकृत पुण्योंका ही फल समझना चाहिये। ऐसे श्लोक खाली पढ़नेसे कुछ लाभ नहीं पहुंचा सकते हैं । इसलिये इस प्रन्यमें पहिले कहा गया है उसप्रकार इसका बारम्बार मनन करना चाहिये और अपने अनुभवके अनुसार बारम्बार पुनरावर्तन करते रहना चाहिये । - परभवमें सुख मिलने निमित्त पुण्यधन. . भक्त्यैव नासि जिनं सुगुरोश्च धर्म,. ... नाकर्णयस्यविरतं विरतीन धरले ।