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अध्यात्मकल्पद्रुम [ एकादश आवश्यकता है। केवल भक्ति ही फलदायक होती हो तो रात्रिमें उठकर नेमनाथजीको वन्दना करने जानेवाले पालककी शुष्क भक्ति में कमी न रहती, परन्तु वहाँ भाव तथा उपयोग न था। वीराशालवीने भी अठारह हजार साधुओंको वंदन किया और श्री कृष्ण ने भी वंदन कीया । जिसमें श्री कृष्णको बहुत लाभ हुआ, सातवी नारकीके योग्य आयुष्यकर्मके दलियेको एकत्र कीया था वे शुद्ध होकर तीसरी नारकीके योग्य हो गये। ये
और अन्य दूसरे लाभ भी हुए, तब वीराशालवी बेचारा एकमात्र कायक्लेश पाया । एक साथ एक सदृश क्रिया करनेवालोंमें इतना अंतर हो जाता है इसका कारण भाव और उपयोगकी तीव्रता और मन्दता ही है।
व्यवहार में भी यह बाबत अनुभवसिद्ध है। एक मित्र मिले और सामान्यरूपसे मुश्कराये बिना ही " आप कैसे हैं ?" यह पूछे इसके सिवाय चित्तके प्रेमसे पूछे तब उसके मुँहकी आकृति भी मुश्करा देती है । चित्तसे प्रेम प्रगट करनेवालेकी ओर छोटा-सा बालक भी आकर्षित हो जाता है और सैठके प्रेम बिना गरीब नोकर भी बराबर सेवा नहीं करता है । श्रावकके लड़के हैं इसलिये लज्जाके मारे मन्दिर जाना चाहिये एसा बिचारकर मन्दिर जानेमें तथा पूजा करनेमें और प्रभूके गुणोंको देख. कर प्रभूको शुद्ध रागसे पूजनेमें अत्यन्त अन्तर है । मावशुद्धि और उसकी वृद्धिकर समझपूर्वक अपने अधिकारानुसार क्रिया करना और दूसरे सर्व व्यवहारिक और धार्मिक कार्य भी इसी. प्रकार करना यह जैन शास्त्रका मुख्य उपदेश है।।
इसप्रकार ग्यारवें धर्मशुद्धि अधिकारकी समाप्ति हुई। इस सम्पूर्ण अधिकार में मुख्यतया तीन बातें कहीं गई है। इस