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बादश
अध्यात्मकल्पद्रुम सकता है, रागदशाको नहीं छोड़ सकता है; इसलिये यदि गीतार्थ गुरुपर राग किया जाय तो वह गुरु धीरे धीरे उसे रास्तेपर लाकर व्यकिपर राग नहि किन्तु गुणोंपर राग करना सिखावे,
और गुणोंपर राग होते ही उन गुणों को प्राप्त करनेका प्रयत्न करेगा और अन्तमें उन्हे प्राप्त भी करेगा । जिसप्रकार मलिन तथा तेलसे सने हुए वस्त्रको साबुनसे धोनेपर उसके मेन तथा चिकनासका नाश हो जाता है, उसीप्रकार गीतार्थ गुरुके रागसे मप्रशस्त रागका नाश हो जाता है।
ऐसी स्थिति है इसलिये अमुक दर्शन या व्यक्ति पर दृष्टिराग न रखकर गुणवान ज्ञानी गुरुकी परीक्षाकर इस संसारयात्राको सफल बनानेका प्रयत्न करें। कुगुरुका उपदेश उचित नही होता है, यदि हो तो प्रभाव डालनेवाला नहीं होता है, प्रभाव डाले तो भी उसके अनुसार वर्तन नहीं हो सकता और बर्तन हो तो भी ऐसा विचित्र हो कि उसका फल नही मिल सकता।
पहले के श्लोकमें दृष्टिराग दूर करनेका कहा गया था फिर उसका यहाँ पुनरावर्तन करनेका यह कारण है कि कामराग और स्नेहराग ये दोनों सामान्य कारणसे नष्ट हो जाते हैं। कामीको व्यवहारके कार्योंमें लगानेसे कामराग कम हो जाता है, इसी. प्रकार दूर देश जानेपर बहुत समयका विरह होनेसे स्नेहराग कम हो जाता है, परन्तु दृष्टिराग ऐसा है कि अत्यन्त कठिनाईसे भी नष्ट नहीं हो सकता है। इतना ही नहीं अपितु बुद्धिमान पुरुष भी इस सम्बन्धमें भूल करते हैं । वीतरागस्तोत्रमें स्तुति करते समय कहा गया है कि
कामरागस्नेहरागावीषत्करनिवारणौ । दृष्टिरागस्तु पापीयान् , दुरुच्छेदः सतामपि ॥
कामराग और स्नेहराग अल्प प्रयाससे दूर हो सकते हैं,