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अध्यात्मकल्पद्रुम
[ द्वादश उपदेशमालामें यह ही भाव दूसरे शब्दोंमें कहा है । वहाँ कहते हैं कि-" माता पिता बालकपर जो उपकार करते हैं वे अनहद है और वे इतना अधिक है कि करोड़ो वर्षों तक एकाग्र चितसे उनकी सेवा करनेसे भी उनका बदला नहीं चुकाया जा सकता है। उसका बदला चुकाने का एक ही साधन है कि मा बापको यदि पुत्रसे धर्म का बोध हो तो उनका बदला मिल सकता है।" ___संसारसे उद्विग्न चितवाले वैराग्यरसिक जीवको जत्र आत्मिक उन्नति करनेकी अभिलाषा होती है तब स्वाभाविकतया सब उन्नत करनेकी अभिलाषा भी प्रबल हो जाती है और उस प्रसंगपर संसारकी असारता देखकर उससे थोड़े-से दूर रहनेका प्रयत्न होता है उस सगय जो मातापिता या सगे-स्नेही बाधा डालते हैं उनको सूरिमहाराज वैरियोंकी श्रेणिमें गिनते हैं और उनकी अवज्ञा करके सरस्वतीचन्द्रके समान लोकयज्ञ निमित्त पितृयज्ञका भोग देने में कुछ बाधा नहीं है, परन्तु अत्यन्त लाभ है, इस विचारकी वे पुष्टि करते हैं। एक छोटे-से वाक्यमें ऐसे गंभीर प्रश्नको हल किया गया है वह जितना चाहिये उतना स्पष्ट और विचारने योग्य है।
संपत्ति के कारण. दाक्षिण्यलज्जे गुरुदेवपूजा,
पित्रादिभक्तिः सुकृताभिलाषः । परोपकारव्यवहारशुद्धी,
नृणामीहामुत्र च संपदे स्युः ॥ ११ ॥
" दाक्षिण्य, लजापन, गुरु और देवपूजा, मातापिता आदि बड़ोकी भक्ति, उत्तम कार्य करनेकी अभिलाषा, परोपकार और व्यवहारशुद्धि मनुष्यको इस भव तथा परभवमें