________________
४५२]
अध्यात्मकल्पद्रुम धिंग् ! दृष्टिरागण गुणानपेक्षः। अमुत्र शोचिष्यसि तत्फले तु,
कुपथ्यभोजीव महामयातः ॥ ७ ॥
"दृष्टिरागसे गुणकी अपेचा विना तू अशुद्ध देव, गुरु, धर्मके प्रति जो हर्ष प्रगट करता है उसके लिये तुझे धिक्कार है ! जिसप्रकार कुपथ्य भोजन करनेवाले अत्यन्त पीड़ासे पीड़ित होकर दुःखी होते हैं उसीप्रकार भविष्य मवमें तू उन कुदेव-धर्म-गुरु सेवनके फलको पाकर चिन्ता करेगा।"
उपजाति. विवेचन-गुणवान गुरुका आश्रय लेने की कितनी श्राव श्यकता है ये सब हम ऊपर पढ़ चुके हैं और ऐसे गुरुको ही नमन करना हमारा कर्तव्य है । ऐसे गुरुसे बताये हुए एकान्त गुणवाले देवकी उनके समान होनेके लिये भावसे उपासना करनी चाहिये और ऐसे गुरु और देवके बताये धर्मका आदर करना गुणापेक्षीपन कहलाता है । इसप्रकार जो प्राणी गुणकी अपेक्षा नहीं रखता है और एक मात्र पौद्गलिक पदार्थोके समान अथवा पुत्र प्राप्ति, धनप्राप्ति, अनेक रोगादि नाशकी आशंसा और मिथ्यात्वजन्य दृष्टिरागसे चाहे जैसे विषयी गुरुकी उपासना करके जो संसारको बढ़ानेवाले अधमाचरण करते हैं वे प्राणी भवि. ध्यमें बहुत पश्चात्ताप करते हैं। इस प्राणीको संसाररोग तो लगा हुभा ही है तिस पर फिर कुगुरुके प्रसंगसे अयोग्य आच. रणरूप कुपथ्य भोजन स्वयं करता है और गुरुके अयोग्य आच. रणकी पुष्टि करता जाता है जिससे रोग बढ़ता जाता है और गुरुसेवाका हेतु जो संसारको कम करने का है उसका नाश होता जाता है।