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४४८ ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[ द्वादश नहीं होता है, परन्तु जैन दर्शन तत्त्वज्ञानसे भरपूर है । तर्क पर आधारित है । जैन धर्म एक भिन्न ही विषय है और प्राकृत व्यक्तिके शुद्धाचरण निमित्त विकस्वर किया हुआ उसका स्वरूप है। तत्त्वज्ञानके भण्डारके रूपमें उसके सम्बन्धमें अथवा दूसरे किसी दर्शनके सम्बन्धमें तर्कविचार-न्यायको उचित अवकाश दे।
___ यह परीक्षा बताने निमित्त स्वरूपज्ञान बतानेकी आवश्यकता होती है जिसके लिए गुरुकी आवश्यकता होती है। वह गुरु यदि शुद्ध होता है तो वह शुद्ध तत्त्वज्ञान बतलाता है और उसे प्राप्त करनेके लिये कितने ही वर्तनधर्म भी बतलाते हैं। ये वर्त्तन धर्मसाध्य नहीं, किन्तु साधन है। साधन चाहे जितने प्रबल हो परन्तु यदि साध्यका लक्ष्य न हो, उसे देखा न हो, जाना न हो तो वे व्यर्थ ही है। इससे प्रगट हो जाता है कि गुरुकी कितनी आवश्यकता है। इस हेतुसे अमुक दर्शनकी परीक्षा करनेसे पहिले उसके बतानेवाले गुरुकी परीक्षा प्रथम करनेकी आवश्यकता सिद्ध होती है।
वीरको विनति. शासनमें लुटेरोंका बल. न्यस्ता मुक्तिपथस्य वाहकतया श्रीवीर ! ये प्राक्त्वया, लुंटाकास्त्वदृतेऽभवन् बहुतरास्त्वच्छासने ते कलौ। बिभ्राणा यतिनाम तत्तनुधियां मुष्णन्ति पुण्यत्रियः पुत्कमः किमराजके ह्यपि तलारक्षा न कि दस्यवः ॥६॥
"हे वीर परमात्मा । मोक्षमार्गको बतलानेवाले के रूपमें ( सार्थवाहके रूपमें ) जिनको तूने पहिले नियुक्त किये थे (स्थापित किये थे), वे कलिकालमें तेरी अनुपस्थिति में
१ फुत्कुम इति वा पाठः।