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अधिकार ] गुरुशुद्धिः
[४३९ होती है। साधुकी विशेष परीक्षा कदाच न हो सके फिर भी गुरुके समान मान्य करनेसे पहले इतना तो व्यवहारसे अवश्य देखलेना चाहिये कि वे कंचन तथा कामिनीके त्यागी हैं या नहीं; .क्योंकि कंचन कामिनीके सद्भावमें साधुपनका नाश हो जाता है और उसका जहाँ त्याग न हो वहां गुरुपन घटता नहीं है। . इसके पश्चात् यदि होसके तो तपस्या, ज्ञान, ध्यान, वर्तन, गुप्ति, कषायदमन, सात्त्विक प्रकृति श्रादि देखना चाहिये । विशेषतया मुख्य बातोंमें किसी प्रकारकी कमी न हो यह विशेष बारीकीसे देखना चाहिये । गुरुमहाराजकी पसन्दीपर सम्पूर्ण संसार. यात्राकी फतहका आधार है, अतएव उनकी परीक्षा कच्ची न करना चाहिये और यह भी न समझे कि ऐसा करनेसे व्यवहार की तथा विवेककी सीमाका उल्लंघन करना होगा। इस बातका निर्णय करना प्रत्येक मुमुक्षुका कर्तव्य है। सदोष गुरुके बताये हुए धर्म भी सदोष होते हैं.. · भवी न धभैरविधिप्रयुक्त
मी शिवं येषु गुरुर्न शुद्धः। रोगी हि कल्यो न रसायनैस्तै
, कंचन और कामिनी इन दोनोंको यहां लिखनेका यह उद्देश्य है कि ये दोनों सर्व मूल गुणों का नाश करनेवाले हैं । महाव्रत पांच हैं, परन्तु उनमें से दूसरों का नाश होता है तो पूरता नाश होता है, लेकिन कंचन और कामिनी गुणोंका सर्वथा घात करते हैं । कंचन और कामिनी सर्व संसारके मूलभूत हैं और जहांपर ये होते हैं वहांपर संसारके अन्य सर्व दुर्गुण एकके पश्चात् एक चले आते हैं । बारीकीसे अवलोकन करनेके पश्चात् हो शाखकारों ने फरमाया हैं कि चतुर्थवतका उल्लंघन होजानेपर फिरसे दूसरी बार दीक्षा लेनी चाहिये । इसप्रकार प्रायश्चितके अनुशासनमें जो महत्ता और दीर्घदृष्टि रही है वह बहुत मनन करनेके योग्य है ।