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अधिकार)
धर्मशुद्धिः और 'उपयोग' अर्थात् सावधानता ( तन्मयपन )-जैसे कि मावश्यक क्रिया सूत्रार्थ, सूत्र, अर्थ, व्यंजन, दीर्घ, इस्त्रोचारण मादिकी बाबतमें सावधान रहना । भाव और उपयोगरहित किया करना एक मात्र कायक्लेश है और इसमें तद्दन अल्प फल है, कुछ नहीं है । शास्त्रकार कहते हैं कि
भाव विना दानादिका, जानो अलुणों धान । भाव रसांग मिले थके, त्रुटे कर्म निधान ॥ ___ भाव बिना दान आदि क्रिया करना नमकरहित भोजनके .. सरश है । इसीप्रकार सुक्तमुक्तावलीकार भी कहते हैं कि
मन विण मिलवो ज्यु, चाववो दंतहिणे, गुरु विण भणवो ज्यु, जिमवो ज्युं अलुणे । जस विण बहु जीवी, जीवते ज्युं न सोहे, तिमि धरम न सोहे, भावना जो न होये ॥
इससे प्रगट होता है कि भावरहित धर्मक्रिया तइन शुष्क है, नकामी है, जीर्ण है, अननुकरणीय है, अनिष्ट है, यह मनरहित मिलना और दांत बिना चावना है।
___ इसलिये कल्याणमन्दिर स्तोत्रमें कहा गया है कि " हे प्रभु! अनन्त संसारमें भवभ्रमण करते हुए मुझे तेरे दर्शन एक बार भी हुए हो ऐसा प्रतीत नहीं होता है; कारण यदि हुए होते तो फिर यह स्थिति रहती ही नहीं।" तात्पर्य यह है कि वास्त. विक दर्शन नहीं हुमा, कारण कि कदाच प्रभुके दर्शन हुए हों, प्रभुकी पूजा की हों या आज्ञा सुनी हों; परन्तु चित्त बिना किया होगा। "यस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशून्याः" जिस कारण के लिये भावरहित क्रिया फल नहीं देती है इससे प्रभुका वास्तविक दर्शन हुआ ही नही ऐसा कहें तो भी अनुचित न होगा । . भावके साथ सावधानपन-विवेककी भी उतनी ही