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अध्यात्मकल्पद्रुम
[ एकादश
नहीं कहती कि मुझे सुंधिये, चन्दन नहीं कहता कि मुझे लीजिये; परन्तु थोड़ा-सा विचार करें तो यह सब स्पष्ट हो जाता है । ३ भावशुद्धि और उपयोग।
प्रत्येक धर्मकार्यमें भाव और सावधानताकी आवश्यकता होती है । जो क्रिया, जप, तप और ध्यान करे उन्हें शुद्ध ध्यान
और उपयोगसे करे । भाव होनेसे अल्पक्रिया भी बहुत फल देती है । निरादरपन, अविवेक, अनुत्साहीपन आदिका त्याग करना । धर्मरूप राजाके दान आदि अंग है और उनमें भावना. रूपी जीव है । शास्त्रकार कईबार स्पष्टतया कहते हैं कि भावरहित क्रियामें बहुधा कायक्लेश होता है। उपदेशतरंगिनीमें कहा है कि "भाव धर्मका सच्चा मित्र है, कर्मरूप कष्टोंको जलानेमें अनिके समान है, पुण्य अन्तमें घीके समान है और मोक्षलक्ष्मीकी कटिमेखला है।" ___इन तीन बातोंपर विशेषतया ध्यान देकर धर्मशुद्धि जिसप्रकार हो सके उसप्रकार रखनेका इस अधिकारमें उपदेश किया गया है । इसमें स्वगुणप्रशंसारूप झूठे दुर्गुणोंसे बचनेके लिये असाधारण प्रयास करनेकी सूचना प्रत्येक सुज्ञको की गई है। लोकरंजननिमित्त धर्म न करना चाहिये, परन्तु अपने भावसे आत्मनिर्मलताके लिये सोच-विचारकर सब धर्मकार्य करने चाहिये । और उनमें जो जो दोष प्राप्त होते जावें उनका सोच विचारकर त्याग करना चाहिये । भगले अधिकार में इस धर्मको बतलानेवाले गुरु सम्बन्धी विवेचन किया जायगा। इति सविवरणो धर्मशुद्धयुपदेशनामैकादशोऽधिकारः।