________________
४२२]
अध्यात्मकल्पद्रुम [एकादश पाये खोदे बिना सुन्दर परिणामवाले कार्य नही हो सकते हैं यह स्पष्ट ही है, परन्तु साथ ही साथ यह भी याद रखना चाहिये कि सदैव नियम ही नहीं याद करने होते हैं, निरन्तर पाये ही नही खोदने होते हैं। साध्यको दृष्टिमें रखकर ही ये दोनो कार्य आदरणीय हैं। मलिन धर्माचरण भी अभ्यास डालनेके लिये उपयोगी है, कारण कि यह नियमको रटने जैसा कार्य है । अनादि अभ्याससे प्रमाद, मात्सर्य, कषाय आदिका त्याग सबसे होना अनेकों पुरुषोंको अशक्य प्रतीत होता है, परन्तु पुरुषार्थ करने से इनका त्याग हो सकता है। त्याग करना है यदि ऐसी धारणा भी मन में रहें तो भी बहुत फेर होजाता है। यह बात तद्दन झुठी है । अभ्यास डालने निमित्त नियम रटनेकी अत्यन्त आवश्यकता है, परन्तु नियम ही नियम है; सुन्दर संयोगवाला जीवन पूर्ण हो सकें यह सत्य नहीं हैं । अध्यात्मसारके दूसरे अधिकारके वीस श्लोकमें कहा गया है कि मलिन धर्मकायोंसे लाभ न होता हो ऐसा नहीं, परन्तु वह बहुत अल्प है, मुमुनु जीवके साध्य मिलनेको अपेक्षासे तद्दन लाभ नहीं है ऐसा भी कहे तो अनुचित न होगा । इस सब हकिकतका तात्पर्य यह ही होता है कि प्रशस्त धर्माचरण करना चाहिये । यदि हम एक सामान्य दृष्टान्त लेवें तो यह बात विशेष स्पष्ट हो जायगी । एक प्राणीको दसहजार रुपये खर्च करनेको हम प्रेरणा करें । वह जीव व्यवहारु है, कर्मके अगम सिद्धान्तको नहीं जानता है, दुनियांका कीड़ा है, इसलिये वह मानका भूखा है। ऐसी स्थितिमें उसे मानके लिये भी दान करनेमें कोई अनु. चित बात नहीं है । उसके द्रव्यको इस मार्गमें व्यय होते होते वह दान धर्मकी उत्कृष्टताको समझ सकेगा, और फिर गुप्त धर्मादिसे अन्तरंग शान्ति और संतोष कैसा है यह भी धीरे