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४२० ] अध्यात्मकल्पद्रुम
[एकादश अब इस जीवमें जो प्रगट विरोध है उसको बतलाते हैं। एक तो प्रत्येकको आगामी आनेवाले भवमें अच्छा होवे वैसा करनेकी इच्छा और दूसरा उससे सदैव विरुद्ध आचरण। हे भाई ! यदि तू आनेवाले भवमें मानसिक अथवा शारीरिक सुख प्राप्त करने की अभिलाषा रखता हो तो फिर इस भवमें ईर्षा और अभिमान करके दूसरोंमें गुणके स्थानमें निन्दा तथा अपनेमें दोषके स्थानमें प्रशंसा या ईर्षासे दूसरोंके गुणोंको प्रकाश ही न होने देना भादि आदि निषिद्ध कार्य करके क्यों सुख प्राप्तिके उपायोंका नाश करदेता है ? तुझे तेरे गुण प्रकट करनेकी अभिलाषा न रखनी चाहिये । याद रखना को गुण हे वह डब्बेमें रक्खी हुई कस्तुरी है । कस्तूरी यद्यपि यह इच्छा नहीं रखती है कि मेरी सुगन्धी सर्वत्र फैले, परन्तु गुणका और कस्तूरीका स्व. भाव है कि वह अपने मूल धर्मसे ही अपने आप सर्वत्र फैल जाती है । वस्तु अवलोकन करनेवाले तत्वज्ञ भलिभाँति जानते हैं कि प्रशंसा-आदरके लिये भागदौड़ करनेवालेको अप्राप्य है, परन्तु जिसको वह योग्य समझती है उसे वरनेके लिये वह अपने हाथमें माला लेकर स्वयं आतुर हो रही है और इच्छा तथा अनिच्छांसे वह वरती है-ऐसा इस संसारका क्रम है । "शुद्ध" धर्म करनेकी आवश्यकता. करनेवालोंकी
__ स्वल्पता. सृजन्ति के के न बहिर्मुखा जनाः,
प्रमादमात्सर्यकुबोधविप्लुताः। दानादिधर्माणि मलीमसान्यमू
न्युपेक्ष्य शुद्धं सुकृतं चराष्वपि ॥ ८॥ " प्रमाद, मत्सर और मिथ्यात्वसे घेरे हुए कितने