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विजय पंन्यासके क्रियाउद्धार करनेका प्रसंग आया वह बहुत बिगाड़ या गड़बड़ होनेके पश्चात् ही आना चाहिये ऐसा तो इतिहासद्वारा भी जाना जाता है, परन्तु लोगसत्कार आदि बाह्याचारोंके लिये सूरीश्वरने यतिशिक्षा अधिकारमें जिस विस्तारसे विचार प्रगट किये हैं उससे तो ऐसा प्रतीत होता है कि बिगाड़के धीरे २ प्रारम्भ होनेके चिन्ह अद्भुत कल्पनाशक्तिको धारण करनेवाले सूरिजोने देख लिये थे । साधुवर्गमें बहुत उच्च श्रेणिका प्रेम था, क्योंकि उसी काव्यके पांचवें सर्गके छठे श्लोकमें लिखे अनुसार देवसुन्दर सुरिने अपने पट्टशिष्यके रूपमें मनमें निर्णय किए हुए सोमसुन्दरसरिको शानसागरसूरिके पास अभ्यास करनेको भेजा था। इसप्रकार आज कल बहुत ही अल्प स्थानोंमें देखा जाता है और विशेषतया अपने प्रिय शिष्यको दूसरोंको सोंपनेमें कारगभूत बहुत प्रेम ही हो सकता है यह व्यवहारदृष्टिसे भी विचारा जा सकता है। साधुओंमें बहुत प्रेम था इसके कारणमें जो हेतु बतलाया गया है वह सामान्य है, क्योंकि ज्ञानसागरसरि देवसुन्दरसूरिके ही शिष्य थे इससे उनका भी उन्हींकी आशामें होना नवीनता नहीं है । फिर भी साधुओंमें परस्पर प्रेम होनेके कई कारण हैं। सर्व साधु अपने गच्छके राजाकी आज्ञाका पालन करते थे, उसीके अनुसार चलते थे, राजा जीवता जागता था, सत्ता कबूल करानेकी शक्तिवाला था और प्रजासत्ताक राज्यके नियमानुसार अमुक वर्षमें राजा नहीं बदलता था परन्तु सर्वकी सम्मतिसे आजीवन प्रसीडेन्टकी भांति, जो सदैव बहुत व्यवहारकुशल, ज्ञानी और अद्भुतशक्ति प्रभाववाला होता था उसीको देखकर पसंद किया जाता था । इससे वह सब पर अपना अंकुश रख सकता था, सवको सुबद्ध रख सकता था और उसकी आज्ञाका पूर्णतया पालन किया जाता था। प्रेम सुरद रहनेका यह मुख्य कारण है । तपगच्छमें उस समयके प्रमाणमें विद्वानो और साधुओ बहुत थे ऐसा गुर्वावलोके अन्तिम २५ श्लोकोंसे जान पड़ता है । गणकी कैसी स्थिति थी उसका वर्णन करते हुये मुनिसुन्दरसूरि लिखते हैं कि
गणे भवन्त्यत्र न चैव दुर्मदी, न हि प्रमत्ता न जड़ा न दोषिणः । विडूरभूमिः किल सोषवीति वा, कदापि कि काचमणीनपि क्वचित् ॥
इस गणमें अभिमानी, प्रमादी, मूर्ख और पापका सेवन कर.