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करने से वे प्राणी अपने पापकृत्यों में अधिक चुस्त नही हो सकते और तेरे साथ विरोध न होने से किसी न किसी दिन वो तेरे से सुसाध्य हो जाते हैं। उनकी भोर तूं एक बार भी प्रगटरूप से तिरस्कार बतादे तो फिर जीवनपर्यन्त वे मेरे विरुद्ध ही रहेंगे, अपितु ऐसे हल्के जीवोंपर क्रोध करने से तुझे कोई साम होने की सम्भावना नहीं है । प्रशस्त एवं अप्रशस्त दोनों प्रकार के क्रोध का सर्वथा त्याग करना योग्य है। इस विषय में श्रीमद् यशोविजयजी महाराज द्वेष के स्वाध्याय में कहते है कि" राग धरीधे जीता गुण लहिये, निर्गुण ऊपर समचित रहिये" गुणवान् पर राग और निर्गुण पर समचित रखने का यहाँ स्पष्टतया उपदेश किया गया है । इसका अर्थ स्पष्ट है इससे विशेष उल्लेख की आवश्यक्ता नहीं मालूम होती; किन्तु इस वृति को प्राप्त करने की अत्यन्त आवश्यक्ता है इससे समता के अभ्यासी का ध्यान इस ओर विशेषरूप से आकर्षित किया जाता है ।
श्रीविनयविजयजी उपाध्याय कहते हैं कि- " माध्यस्थ. भावना सांसारिक प्राणियों के विश्रांति लेने का स्थान है " इस संसार के जीव भिन्न भिन्न कर्म कर के भिन्न २ स्वरूपवाले दिखाई देते हैं । सब की चेष्टा एकसी नहीं होती, हो भी नहीं सकती तो फिर बुद्धिमान पुरुष किस पर क्रोध करे और किस से संतुष्ट हो ? तीर्थकर महाराज श्रीवीरप्रभुने मिथ्या बोलनेवाले अपने जमाई जमाली को भी रोकने निमित्त बलात्कार नहीं किया। इससे प्रत्यक्ष है कि तीर्थकर महाराज अनन्त वीर्यवाले होनेपर भी बलात्कार से धर्म का पालन नहीं कराते परन्तु शुद्ध धर्म का उपदेश करते हैं । अतः हृदय में समता रखना और मनोषिकारों के वशीभूत न हो जाना चाहिये ।