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आवश्यकता है । केवल लोकप्रवाहसे आकर्षित होजाना उचित नहीं है । जब ऐसा विचार करके धनका व्यय किया जायगा तब अत्यन्त लाभ होगा।
मानसे संस्कारित या बिनसंस्कारित बन्धुओंमेंसे जिन्होंने थोड़ासा भी शास्त्रीय तत्त्वज्ञान सम्पादन किया होगा उनको सहज ही में मालूम होगा कि सात क्षेत्र धर्मका गहरा तथा मजबूत पाया है। जिसप्रकार पैसोंका चाहे जैसे बिना सौचे-समझे व्यय करना अनुचित है उसीप्रकार उनमें से किसी क्षेत्रकी ओर तथा विशेषतया सिद्धिदायक क्षेत्रकी और ध्यान न देना भी अनुचित है । सात क्षेत्रमें अपनी महान संस्था कान्फरेन्स ( Conference ) के मुख्य प्रस्तावोंका सार आजाता है । श्री जिनबिंब, जिनचैत्य, साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका ये सात क्षेत्र है। इनके उद्धार, अभ्युदय, उन्नति के लिये यथा योग्य प्रयास करना, अपना तन, मन और धन इसमें लगाना, अर्पण करना और इसके लिये अत्यन्त परिश्रम करना, यह प्रत्येक मुमुनुका प्रथम कर्त्तव्य है । इसमें भी पहले बताई हुई बातको फिरसे दूहरीकर कहां जाता हैं कि जिस क्षेत्रको मददकी विशेष आवश्यकता हो उसकी विशेष सहायता करना तथा उसपर धन आदिको विशेष व्यय करना चाहिये । पहले समयमें दृढ़ श्रद्धा जागृत करने निमित्त जिनालयों तथा प्रतिमाजी आदिकी विशेष आवश्यकता थी, किन्तु वर्तमान समय ज्ञानकाल होनेसे केलवणीके ,साधनोंकी विशेष आवश्यकता है। यह सब हकीकत ध्यानमें रखकर अपेक्षायें द्रव्य,